मंगलवार, 22 मार्च 2011

शिक्षा में बदलाव की नई चुनौतियां

भारत में शिक्षा और ज्ञान, दान अथवा सेवा के क्षेत्र माने गये हैं। हमारा अतीत भारत को ‘विश्वगुरु’ जैसे विशेषण से सम्म्मानित करता है और मूल भारतीय समाज में ‘कृण्वन्तोविश्वमार्यं’ की अन्तरचेतना और उसका संकल्प जागृत करता है। यह एक आश्चर्यजनक किन्तु वास्तविक तथ्य है कि इसी कारण लम्बे समय तक गुलामी के चंगुल में फंसे रहने के बावजूद, मैकाले की शिक्षानीति थोपे जाते समय जहां ब्रिटेन की साक्षरता 6 प्रतिशत थी, वहीं भारत की 36 प्रतिशत। मैकाले ने उसी समय भारत के मद्रास और कलकत्ता केन्द्रों से संचालित शिक्षा पद्धति को सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पद्धति घोषित कर ब्रिटेन में लागू करने की सिफारिश की थी, जिसे आज ‘मानिटोरियल पद्धति’ के नाम से जाना जाता है।
भारत में उदारिकरण और भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया आरभ्भ होने के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन आ गया है। पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों तक में बाजार प्रवेश पा रहा है, और इसी के फलस्वरुप सेवा के सारे क्षेत्र भी, व्यापार के क्षेत्र घोषित किये जा चुके हैं। दुनिया के तथाकथित विकसित देश शिक्षा के बाजार की होड़ में शामिल होने को लालायित हैं। उदारीकरण और भोगवाद से उत्पन्न महामन्दी के दौर में सेवा का क्षेत्र उनके लिये सम्बल साबित हो रहा है। सेवा के सभी क्षेत्रों में शिक्षा एक महत्वपूर्ण एवं शाश्वत क्षेत्र है। जब तक मनुष्य रहेगा शिक्षा की आवश्यकता बनी रहेगी और उस क्षेत्र में चलने वाला व्यापार निरन्तर गतिशील रहेगा। भारत जैसे देश में, जहॉं शिक्षा और ज्ञान को लेकर पारम्परिक पिपासा पायी जाती है, शिक्षा का कारोबार विकसित देशों को और अधिक सुहां रहा है।
विश्व व्यापार संगठन के ‘गैट्स’ प्रावधानों में तो देश की सम्प्रभुता के साथ ही संविधान और कानून-सबकी धज्जियॉं उड़ा दी है। इसने जनहित को ताक पर रखकर लोकहित का जो छलावा गढ़ा है, उसके मोहजाल में फॅंसकर कोई भी चौतन्य राष्ट्र स्वत्व व चेतना से विहीन होकर दरिद्रता के जबड़ों में दबकर छटपटाते हुए मृत्यु का शिकार हुए बिना नहीं रह सकता। ऐसे में जब हम भारत के भ्रष्ट नेतृत्व, अधिकारी, लचर व्यवस्थाओं पर दृष्टिपात करते हैं तो शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन की चुनौती और अधिक विकराल होकर सामने आती है। नेताओं, अधिकारियों, पूंजीपतियों और माफिया समूहों ने जिसप्रकार शिक्षा को माध्यम बनाकर देश की गरीब जनता को लूटने के उद्देश्य से मानो हमला बोल दिया हो, तब उम्मीद की लौ बुझती नजर आने लगती है।
सरकार की हवाई योजनाओं और निर्मम व्यवस्था ने देश के लाखों किसानों को आत्महत्या करने के लिये विवश किया है, अब मानो, छात्रों की बारी है। लोनिंग पॉलिसी में फॅंसकर भारत के कितने स्वाभिमानी छात्र-छात्रायें आत्महत्या कर सकते हैं, सरकार शायद इसी का परीक्षण करना चाहती है। अभी से लाखों रुपये खर्च कर इंजीनियरिंग और प्रबन्धन की पढ़ाई कर चुके हजारों नौजवान, इंजीनियर और प्रबन्धक बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं। दिनोंदिन यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। अपने पाल्यों की कमाई के आस में बैठे लाखों गरीब अभिभावक निराश और हताश हैं। ऐसे में, शिक्षा क्षेत्र की चुनौती और भी अधिक भयावह भविष्य की ओर संकेत कर रही है।
व्यावसायिकता के राहु ने सरकारों की लोक कल्याणकारी भावनाओं को भी ग्रस लिया है। सरकारें अपने कर्तव्य से विमुख हो शिक्षा को धन्धा बना देने पर आमादा दिखायी देती है। सरकार द्वारा शिक्षा के निजीकरण की प्रवृति को लगातार बढ़ाने से सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी दिनोंदिन कम होती जा रही है और गरीब तथा मजबूर छात्रों से पैसे की अवैध वसूली के बल पर शिक्षा क्षेत्र की हर समस्या का समाधान ढूढ़ने की भयानक प्रवृति बढ़ रही है। शुल्क बेतहाशा बढ़ता जा रहा है और न्यायालय भी इन प्रवृतियों की अनदेखी कर, विरोध में आवाज उठाने वाले छात्रों, छात्र संगठनों और अभिभावकों इत्यादि को दोषी ठहराने में ही न्याय की इतिश्री समझ रहा है। आज आवश्यकता है तो शिक्षा को व्यापार बना देने की विकृत सोच पर चोट करने की।
एक ओर सरकार ‘सर्वशिक्षा अभियान’ चलाती है, ‘सबको शिक्षा का अधिकार’ कानून संसद में पारित करती है, छः से चौदह वर्ष के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने की घोषणा करती है, तो दूसरी ओर उसी के द्वारा गरीब जनता से शिक्षा के नाम पर लूट-खसोट के रास्ते भी खोले जाते हैं। के.जीसे पी.जी. तक शिक्षा व्यापार और शोषण का माध्यम बन चुकी है। ऐसी परिस्थिति में छात्रों, शिक्षकों, शिक्षाविदों, अधिवक्ताओं और समस्त जागरुक अभिभावकों तथा शिक्षित समाज का यह दायित्व है कि वे शिक्षा के व्यापारीकरण की इस दुर्दांत प्रवृति के विरुद्ध उठ खड़े हों और एक व्यापक जनान्दोलन के द्वारा सरकार को इस पर अंकुश लगाने के लिए बाध्य कर दें।
शिक्षा में मूल्य, नैतिकता, संस्कार, परिश्रमशीलता के साथ ही कुशलता और गुणवत्ता का समावेश हो जिससे विदेशियों द्वारा भारतीयों और पूंजीपतियों, भ्रष्ट अधिकारियों, नेताओं तथा माफियाओं द्वारा देश की सामान्य जनता के लूट-खसोट की प्रवृति पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके, और एक बार फिर भारत, शिक्षा के माध्यम से आध्यात्म, विज्ञान, गणित, चिकित्सा, तकनीकि, कृषि इत्यादि सभी क्षेत्रों में विश्व का सिरमौर बन शोषणमुक्त, समता-ममतायुक्त एकात्म विश्व की प्रस्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वाह कर सके।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें