सोमवार, 23 मई 2011

परिवर्तन का इतिहास बनाएगा ‘यूथ अंगेस्ट करप्शन’ – सुनील आम्बेकर

एबीवीपी के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आम्बेकर ने कहा है कि भ्रष्टाचार में संलग्न लोगों को कड़ी सजा होना जरूरी है लेकिन देश में प्रशासन, पुलिस तथा न्यायालय जैसी कई व्यवस्थाओं में होने वाली देरी से सामान्य व्यक्ति को भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है सुनील आम्बेकर एबीवीपी द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि ऐसी व्यवस्थाओं में कानूनी बदलाव की जरूरत है।

इस सम्मेलन के दौरान ही एबीवीपी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को तेज करते हुए यूथ अगेंस्ट करप्शन नामक एक नए फोरम की घोषणा भी की। ये फोरम भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत खड़ा करने का काम करेगा। सम्मेलन में देश भर से आए प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए सुनील आम्बेकर ने कहा कि सामाजिक कल्याण और विकास की कई योजनाओं के आर्थिक व्यवहार एवं परिणामों की कठोर समीक्षा करते हुए उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को प्राथमिकता से दूर करने की जरूरत है। यूथ अंगेस्ट करप्शन नाम का ये आंदोलन परिवर्तन का इतिहास बनाएगा।

दिन भर के इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में भारतीय नीति प्रतिष्ठान के निदेशक राकेश सिन्हा ने भ्रष्टाचार के सामाजिक-आर्थिक पहलू की विस्तार से चर्चा की। राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आम्बेकर ने आंदोलन की भूमिका पर प्रकाश डाला जबकि सह संगठन मंत्री सुनील बंसल ने सम्मलेन में भ्रष्टाचार की समस्या और उसके समाधान पर देश भर से आए प्रतिनिधियों से चर्चा की। इस मौके पर एबीवीपी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए जाने वाले आंदोलन का एजेंडा भी सार्वजनिक किया। 13 सूत्रीय इस एजेंडे में विदेश से काले धन की वापसी, भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून की बात को प्रमुखता से रखा है। साथ ही चुनाव सुधार, विकेंद्रीकरण और ई-गवर्नेंस की वकालत भी एबीवीपी के इस एजेंडे में प्रमुखता से रखी गई हैं।

राजस्थान से नाता रखने वाले राष्ट्रवादी कवि विनीत चौहान ने अपनी कविताओं से भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़ा होने के लिए युवा शक्ति का आवाहन किया। कार्यक्रम में भ्रष्ट कुलपतियों की सूची एबीवीपी के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री विष्णु दत्त शर्मा ने जारी की। यूथ अंगेस्ट करप्शन और एबीवीपी द्वारा भविष्य के कार्यक्रमों की योजना एबीवीपी के राष्ट्रीय सहसंगठन मंत्री सुनील बंसल ने रखी। इस मौके पर सह संयोजक डॉ. रश्मि सिंह ने युवाओं से इस मुहिम में भारी से भारी संख्या में जुड़ने का आवाहन किया।

भ्रष्टाचार के खिलाफ एबीवीपी का शंखनाद

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को तेज करते हुए एक यूथ फोरम की घोषणा की है। नई दिल्ली में संगठन द्वारा आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में यूथ अगेंस्ट करप्शननाम के इस मंच की घोषणा की गई। ये मंच पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ने और जनजागरण का काम करेगा।

यूथ अगेंस्ट करप्शन भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए समाधान की दिशा में कोशिश करेगा और जनादेश तैयार करने के लिए देश भर में अलग-अलग प्रकार के कार्यक्रम, धरना, प्रदर्शन, सेमिनार और संगोष्ठी आयोजित करेगा। विदेश में स्थित बैंकों से भारतीय धन वापस लाने हेतु नए कानून बनाने की पहल भी ये मंच कर रहा है। आज हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में एक ड्राफ्ट बिल भी प्रस्तावित किया गया. इसे देश की सबसे बड़ी पंचायत में पेश करने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जाएगा।

इस फोरम की राष्ट्रीय टीम और प्रांतीय संयोजकों की घोषणा एबीवीपी के राष्ट्रीय महामंत्री उमेश दत्त ने आज की. फोरम के राष्ट्रीय संयोजक सुनील बंसल (दिल्ली) तथा सह-संयोजक के रूप में विष्णुदत्त शर्मा (भोपाल), डॉ. रश्मि सिंह (दिल्ली), एन रविकुमार (बेंगलुरु) को बनाया गया है. इस पहल को समाज के विभिन्न प्रबुद्धजनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का समर्थन प्राप्त है। केंद्रीय टीम में अशोक भगत (रांची) और के जे अलफांस (केरल) मार्गदर्शक के रूप में रहेंगे तथा अन्य सदस्यों में आनंद कुमार (पटना), आर. सुब्रमनियम (बेंगलुरु), गोपाल अग्रवाल (दिल्ली), विनीत चौहान (राजस्थान) शामिल है

एबीवीपी 15 से 30 मई के बीच प्रांत और जिला केंद्रों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन और अन्य प्रकार की गतिविधियां आयोजित करेगी. इस अभियान से विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को जोड़ने की भी तैयारी है. गुरूवार को आयोजित सम्मेलन में अशोक भगत, आर बालसुब्रमनियम, के जे अल्फांस, विनीत चौहान ने सहभागिता की. अशोक भगत ने आपातकाल आंदोलन में हिस्सा लिया और आजकल झारखंड के जनजातीय क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। आर बालसुब्रमनियम कर्नाटक में आरटीआई कार्यकर्ता हैं जो विवेकानंद यूथ मूवमेंट नाम के संगठन के माध्यम से समाज के पिछड़े वर्ग के लिए काम कर रहे हैं। के जे अल्फांस 1992-2000 तक डीडीए के कमिश्नर रह रहे जिसके तहत उह्नोंने 15000 से अधिक अवैध इमारतें गिराईं। 2006 में आईएएस सेवा छोड़ी और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हुए।

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एबीवीपी ने जारी की भ्रष्ट कुलपतियों की लिस्ट

किसी भी देश के विकास का प्रमुख आधार शिक्षा है। शिक्षा के बिना देश का विकास संभव नहीं है। लेकिन धीरे-धीरे शिक्षा का व्यावसायीकरण होता गया जिसके कारण यह भ्रष्टाचार के दलदल में भी धंसता चला गया।

आज भारत में अधिकतम विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार का अड्डा बन गए हैं और भ्रष्टाचार का यह खेल स्वयं कुलपति के ही नाक के नीचे खेला जा रहा है। विश्वविद्यालय के संचालन से लेकर शिक्षा की गुणवत्ता का कार्यभार कुलपति पर होता है। ऐसे में इस पद पर किसी उच्च शिक्षित, मूल्यों पर चलने वाले एवं ईमानदार व्यक्ति के सुशोभित होने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन सबसे शर्मनांक बात तो यह है कि कुछ विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति भी अवैध रूप से हुई है और उनकी डिग्रियां भी फर्जी पाई गई है। कुलपति बनने के लिए उच्च शिक्षा का कोई मोल नहीं रह गया है। योग्यता, मर्यादा को ताक पर रखकर कुलपति चयन का अधार केवल पैसा, जाति, क्षेत्र एवं चापलूसी रह गया है। इन कुलपतियों की नियुक्ति कहीं राजनीतिक दबाव के कारण हुई तो कहीं पैसों के लेनदेन के आधार पर। यही कुलपति आगे अयोग्य अध्यापकों की नियुक्ति कर देश का भविष्य खतरे में डाल रहे हैं। उक्त बातें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री विष्णु दत्त शर्मा नई दिल्ली में ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में आज देश के 25 भ्रष्ट कुलपतियों की सूची जारी करते हुए कहा है।

इस सूची में मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय के वीसी कमलाकर सिंह का नाम सबसे ऊपर है जिनके ऊपर भारतीय दंड संहिता के तहत तमाम मुकदमे दर्ज किए गए हैं. एबीवीपी का कहना है कि स्वयं कुलपति की नियुक्ति में गड़बड़ी की गई थी. उनकी नियुक्ति के समय ही विरोध किया गया था लेकिन कमलाकर सिंह को कुलपति बनाया गया. बाद में एबीवीपी के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री विष्णुदत्त शर्मा की याचिका पर उच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्ति को खारिज कर दिया. उनकी एलएलबी की डिग्री भी फर्जी पाई गई है. मगध विश्वविद्यालय के कुलपति अरविंद कुमार का मामला भी ध्यान देने योग्य है. पटना उच्च न्यायालय ने उनकी नियुक्ति को अवैध घोषित कर रखा है हालांकि अरविंद कुमार अभी फरार हैं.

मध्यप्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति कमलाकर सिंह पर पी.एच.डी. की नकल का आरोप है जिसके कारण इन पर धारा 420 के तहत केस दर्ज किया गया है । इन्होंने एल.एल.बी. की डिग्री फर्जी तरीके से नौकरी में रहते हुए भी रैगुलर कोर्स से प्राप्त की । सिंह पर विश्वविद्यालय में आर्थिक भ्रष्टाचार करने का भी आरोप है। मध्यप्रदेश के भोज विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एस. के. सिंह पेपर लीकेज में दोषी पाए गए है । उन्होंने प्रिंटिंग में 35 लाख रूपये व पाठ्यसामग्री लिखवाने एवं विश्वविद्यालय के लिए जरूरी सामानों की खरीद में लाखों का घोटाला किया है । उन पर फर्जी नियुक्तियों का भी आरोप है एवं उन्होंने विधानसभा में भी गलत जानकारी प्रस्तुत की ।

कर्नाटक के विश्वेसरैया तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. महेशप्पा ने अपनी नियुक्ति के समय स्नातकोत्तर डिग्री के फर्जी दस्तावेज प्रस्तुत किये और रक्षा अनुसंधान एवं विकास परिषद (डीआरडीओ) के सामने गलत सूचना दी। कर्नाटक के महिला विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. सैयद अखतर ने 92 प्राध्यापकों एवं कर्मचारियों की नियुक्तियों में भ्रष्टाचार किया और विश्वविद्यालय के कोष का स्वयं के लाभ के लिए दुरूपयोग किया। कर्नाटक के मैसूर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. शशिधर प्रसाद ने 162 प्राध्यापकों एवं 151 कर्मचारियों की नियुक्ति में यूजीसी एवं वि.वि. नियमों का खुला उल्लंघन किया । नियुक्ति प्रक्रिया में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना तथा अनु. जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की आरक्षण नीति की अवहेलना की। इन्होंने डा. रंगविथालाचार कमेटी के द्वारा लगाए गए आरोपों पर भी कोई कार्रवाई नहीं की ।

बैंगलोर के आर.जी.यू.एच.एस. विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. पी.एस. प्रभाकरन की मेडिकल के पी.जी. के लिए कॉमन एंटरेंस टेस्ट में गैरकानूनी रूप से संलिप्तता पाई गई है। सीबीआई ने प्रभाकरन पर आईपीसी की धारा 420 के तहत केस दर्ज किया है। आन्ध्र प्रदेश स्थित पालमूर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री गोपाल रेड्डी पर आर्थिक भ्रष्टाचार, अपने चहेतों को अनाधिकृत लाभ देना, विश्वविद्यालय के एकाउन्ट में किसी भी तरह की पारदर्शिता का न होना और 12 करोड़ रूपये के घोटाले का आरोप है। आन्ध्र प्रदेश के श्रीकृष्ण देव राय विश्वविद्यालय की कुलपति श्रीमति कुसुम कुमारी पर नियुक्ति में भ्रष्टाचार, अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति, आरक्षण नीति का पालन न करने का आरोप है । कुसुम पर राज्य सरकार की जांच कमेटी में आरोप सिद्ध हुए हैं ।

गुजरात में सूरत स्थित वीर नरमद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति डा. बी.ए. प्रजापति ने प्रश्न पत्र लीक करने वाले कॉलेजों का सहयोग किया, टेण्डर देने में भारी भ्रष्टाचार किया व अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की । इस विश्वविद्यालय की कुल 370 फर्जी मार्कशीट पकड़ी गई है। अहमदाबाद स्थित गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति डा. परिमल त्रिवेदी ने महाविद्यालयों पर दबाव बनाया कि वह अयोग्य छात्रों से पैसा लेकर उन्हें प्रवेश दे । उन्होंने अपनी पत्नी को उनकी परीक्षा में अनुचित लाभ दिलाया और उत्तर पुस्तिका प्रिन्टिंग में भ्रष्टाचार किया ।

छत्तीसगढ़ के इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एम.पी. पाण्डेय पर भारी वित्तीय अनियमितताओं और नियुक्तियों में धांधली करने का आरोप है। असम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. तपोधीर भट्टाचार्जी पर पैसे लेकर अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति करने, विश्वविद्यालय की नेटवर्किंग में दो करोड़ रूपये का घोटाला करने, फंड का गलत प्रयोग और विश्वविद्यालय में परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप है। असम के डिब्रुगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति कन्दर्प कुमार डेका की नियुक्ति ही अवैधानिक है। डेका ने परीक्षा परिणाम में भारी धांधली की है।

बिहार स्थित मगध विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अरविन्द कुमार पर भ्रष्टाचार व अवैध नियुक्ति का आरोप है। 4 मई 2011 को पटना उच्च न्यायालय ने नियुक्ति को ही अवैध घोषित किया। बिहार स्थित तिलकामांझी विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति डा. प्रेमा झा पर अवैध नियुक्ति, निर्माण कार्य में अनियमितता, उप कुलसचिव की अवैध नियुक्ति का आरोप है । उन पर धारा 420, 409, 465, 467, 468, 166, 177, 553, 120बी, 324 के तहत मामला दर्ज किया गया है । बिहार के छपरा जिले में स्थित जयप्रकाश विश्वविद्यालय के कुलपति डा. दिनेश प्रसाद सिन्हा पर शराब पीकर लोक गीत गायिका देवी के साथ छेड़छाड़ का आरोप है । दिनेश पर धारा 341, 342, 323, 354, 509 के तहत केस दर्ज है। जयप्रकाश विश्वविद्यालय के ही पूर्व कुलपति डा. आर. पी. शर्मा पर छल से धन गबन करने के आरोप में धारा 409420 के तहत मामला दर्ज किया गया है। झारखण्ड के कोल्हान विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. फादर बैनी एक्का पर 21.5 लाख का अग्रिम राशि गबन का अरोप है।

उत्तर प्रदेश स्थित लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति डा. मनोज मिश्रा पर बीएड प्रवेश परीक्षा में 11 करोड़ के घोटोले, नियुक्तियों में धांधली, मूल्यांकन में भारी अनियमितताओं व महाविद्यालयों को फर्जी मान्यता देने का आरोप है। उत्तर प्रदेश के वी.वी.डी. विश्वविद्यालय के कुलपति डा. ए.के. मित्तल पर उत्तर पुस्तिका प्रिंटिंग में 5 करोड़ व सत्र 2008-09 में नामांकन एवं परीक्षा शुल्क में 1.25 करोड़ के घोटालों का आरोप है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. पी.के. अब्दुल अजीज पर वित्तीय अनियमितताओं के चलते सीबीआई की जांच चल रही है । अजीज ने पूर्व छात्र परिषद के नाम पर अरब देशों से करोड़ों रूपयों की उगाही की है । गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अरूण कुमार पर बीएड में धांधली का आरोप सिद्ध हुआ जिसके बाद उन्हें राज्यपाल ने बर्खास्त कर दिया। उत्तर प्रदेश स्थित पूर्वाचल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. एन.सी. गौतम पर भी बीएड में धांधली और नियुक्तियों में अनियमितताओं का आरोप है।

उत्तराखण्ड स्थित कुमायुं विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. सी.पी. बरतवाल पर कई छात्रों को फर्जी पी.एच.डी. करवाने, अपने रिसर्च पेपर फर्जी दस्तावेजों के आधार पर तैयार करने और आर्थिक आरोप है।

राजस्थान के जयनारायण विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. नवीव महतो पर नियुक्तियों में भ्रष्टाचार करने, विश्वविद्यालय के गोपनीय विभाग की गोपनीयता को स्वयं भंग करने और निजी एजेन्सी द्वारा परीक्षा परिणाम बनाने में भारी गड़बड़ी करने का आरोप है ।

उच्चशिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए ये एबीवीपी की अनूठी पहल हैसूची में दिए गए 25 कुलपतियों द्वारा की गई अनियमितताओं संबंधी सारी जानकारी एबीवीपी के पास मौजूद है। श्री शर्मा ने कहा किइस प्रकार के अयोग्य एवं भ्रष्ट कुलपतियों के कारण विश्वविद्यालयों का वातावरण खराब हो रहा है। प्रवेश परीक्षाओं एवं परिणामों में भारी अनियमितताएं हो रही है जिससे होनहार छात्रों का भी मनोबल घटता है। शिक्षा संस्थानों में अध्यापकों का चयन योग्यता को ताक पर रखकर पैसों व परिवारवाद के आधार पर होगा, तो देश के भविष्य का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अतः शिक्षा संस्थानों में नियुक्ति व परिणामों में पारदर्शिता बढ़ाने की जरूरत है जिससे शिक्षा की फर्जी दुकानों से निजात मिल सके।Post templates

तुष्टीकरण की बलि चढ़ेगा देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र

आशुतोष

पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव एक बड़े राजनैतिक बदलाव की ओर संकेत कर रहे हैं, यह दावा किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथियों का वर्चस्व टूटा तो तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में द्रमुक-कांग्रेस गठबंधन को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। असम में कांग्रेस अपनी सरकार को बचाने में कामयाब रही वहीं कर्नाटक और आंध्र के उपचुनाव के परिणाम कांग्रेस को चेतावनी दे रहे हैं।

इन परिणामों को लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास, परिवर्तन की बयार, भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनादेश आदि कह कर महिमामंडित किया जा रहा है। असम छोड़ कर सभी राज्यों में होने वाला परिवर्तन प्रथमदृष्टया ऐसा आभास भी देता है। कुछ लोग इसे दिल्ली में अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुई अहिंसक क्रांति की फलश्रुति के रूप में भी प्रस्तुति कर रहे हैं और इसके पूरे देश में दोहराये जाने का दावा कर रहे हैं। अन्य अनेक राजनैतिक और सामाजिक नेता और संगठन, जो बदलाव के निजी अभियान चला रहे हैं, का उत्साह भी इन परिणामों से बढ़ा है।

पश्चिम बंगाल में हुए सत्ता परिवर्तन के संकेत पहले ही दिखने लगे थे लेकिन इतनी जबरदस्त जीत की उम्मीद स्वयं ममता बनर्जी को भी नहीं थी। वामपंथी कुशासन के विरुद्ध ममता एक प्रतीक बन गयी थीं। इस ऐतिहासिक विजय का पूरा श्रेय उनकी अनथक मेहनत और जुझारूपन को है। यह उनकी नितांत व्यक्तिगत जीत है जिसे बंगाल की जनता ने अपना समर्थन देकर पूरा किया।

वस्तुतः यह संघर्ष राष्ट्रीय दल और पूंजीवादी व्यवस्था का हिस्सा होने के नाते कांग्रेस अथवा राष्ट्रवादी विचार के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय जनता पार्टी का राजनैतिक संकल्प होना चाहिये था जिसे ममता ने अपने हौंसले और जिद की दम पर हासिल किया है। परिवर्तन की यह लड़ाई अन्य राज्यों से अलग और उल्लेखनीय है। अन्य राज्यों की तरह यहां न तो मतदाताओं को उपहार बांटे गये थे और न ही बाजार द्वारा गढ़े गये विकास के लुभावने नारों का ही इस्तेमाल किया गया था।

मां, माटी और मानुष के सम्मान जैसी कोमल संवेदना में भी परिवर्तन की ऊर्जा छिपी है इसे ममता ने न केवल पहचाना, बल्कि उसे राजनीति से दूर गांव-गली तक पहुंचाया भी। विकास के नाम पर अपनी मुनाफाखोरी को आवश्यक साबित करने वाले बाजार की शक्तियों को तो वे सिंगूर और नंदीग्राम के समय ही आइना दिखा चुकी थीं।

हालांकि राइटर्स बिल्डिंग में प्रवेश करने की आतुरता में ममता ने भी कुछ समझौते किये हैं । आने वाला समय ही बतायेगा कि उन्हें इसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस आतुरता में उन्होंने जहां एक ओर माओवादियों-नक्सलवादियों का सहारा लिया है तो दूसरी ओर पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों, उद्योगपतियों आदि से भी हाथ मिलाया है। बड़ी मात्रा में मुस्लिम मत भी उनके खाते में गये हैं जिनमें बांग्लादेशी घुसपैठियों की भी काफी संख्या है। कल तक अपनेआप को कलाकारों, साहित्यकारों, समाजशास्त्रियों, शिक्षाशास्त्रियों आदि के रूप में प्रस्तुत करने वाले अनेक कॉमरेडों ने भी समय की नजाकत को देखते हुए ममता की विरुदावली गानी शुरू कर दी थी। जश्न खत्म होने पर वे भी अपना इनाम मांगेंगे। इन सबको एक साथ साध पाना, साथ ही मतदाताओं की आकांक्षाओं को पूरा करना, यह सरल काम नहीं है।

जनता जब इतना स्पष्ट जनादेश देती है तो लम्बे समय तक धैर्य रखने को तैयार नहीं होती। उसे अब परिवर्तन के नारे से नहीं बहलाया जा सकता। परिवर्तन होता दिखना भी जरूरी होता है। इसलिये ममता को सच का सामना करने के लिये भी तैयार हो जाना चाहिये।

राज्य का खजाना खाली है और समस्याओं का अंबार लगा है। कम्युनिस्ट कैडर द्वारा उगाही के अर्थशास्त्र और नीतिगत भ्रष्टाचार को वाम गठबंधन द्वारा जिस प्रकार संस्थागत रूप दिया जा चुका है उसका तिलस्म तोड़ना कोई हंसी-खेल नहीं है। अगर ममता इसे जारी रहने देती हैं तो वे अपने मतदाताओं का विश्वास खो देंगी। यदि वे इसे उखाड़ फेंकने की कोशिश करेंगी तो लाखों कम्युनिस्ट कैडर को बेरोजगार कर अपने खिलाफ अराजकता की आंधी को आमंत्रित करेंगी। इसका तीसरा और सबसे खतरनाक किन्तु प्रायः अवश्यंभावी पहलू है उनके अपने ही कार्यकर्ताओं का भारी दवाब।

जब भी ऐसे व्यापक परिवर्तन हुए हैं, देखने में आता है कि सत्ता संभालने वाले दल के कार्यकर्ता, जो लम्बे समय तक अपने नेता के कहने पर संघर्ष करते हैं, लाठी-गोली खाते हैं, अपने कैरियर दांव पर लगाते हैं, इस स्थिति में सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगते हैं। मंत्री, विधायक, सांसद बनाये जाने की सीमा होती है। वह सबको नहीं दी जा सकती। तब मांग उठती है भ्रष्टाचार के उस तंत्र को उखाड़ फेंकने के बजाय उसे बनाये रखने और उसके पायेदारों के रूप में डटे पिछले सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को हटाकर नये सत्ता में आये दल के कार्यकर्ताओं को वहां स्थापित करने की।

यह वह क्षण होता है जब अधिकांश नेतृत्व राजनैतिक मजबूरी के चलते अपने समर्थकों के सामने नतमस्तक होता है और भ्रष्ट व्यवस्था को अभयदान मिल जाता है। यही वह क्षण होता है जब किसी भी परिवर्तन की निरर्थकता की इबारत का पहला अक्षर लिखा जाता है। यही वह क्षण होता है जब समझौते न करने के कारण ऊंचाई और प्रतिष्ठा पाने वाला व्यक्ति समझौता कर अपनी पहचान गंवाता है। इसके आगे समझौते ही उसकी नियति बन जाते हैं। और यदि वह समझौते नहीं करता, तो अपने उन कार्यकर्ताओं की नाराजगी मोल लेनी होती है जो पूरे संघर्ष में कदम-कदम पर उसके साथ खड़े थे।

पश्चिम बंगाल में समस्याएं बेहद विकराल है। पड़ोसी देश से होने वाली घुसपैठ से ममता कैसे निपटेंगी। भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, सामाजिक संघर्ष, नक्सलवाद जैसी चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं। ममता के पास विश्राम का समय नहीं होगा। तुरंत परिणाम पाने की जनाकांक्षा उन्हें लगातार दवाब में रखेगी। लेकिन अपने जीवट के बल पर ममता इस जनाकांक्षा को तृप्त कर पायेंगी, उनके व्यक्तित्व को जानने वाला कोई भी यह विश्वास व्यक्त कर सकता है। यह ममता की सफलता के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश में बन रहे परिवर्तन के वातावरण को बनाये रखने के लिये भी बेहद जरूरी है।

तमिलनाडु और पुड्डुचेरी की राजनीति आमतौर पर एक जैसे रुझान प्रदर्शित करती रही है। द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच सत्ता का लेन-देन भी चलता रहा है। दोनों ही दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। पिछली बार जब तमिलनाडु की जनता ने जयललिता को सत्ता से बेदखल किया था तो उनकी अकूत सम्पत्ति और तुनकमिजाजी के किस्से हफ्तों तक पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियां बनते रहे थे। करुणानिधि के कुनबे ने उनके कीर्तिमान को तोड़ा है।

तमिलनाडु के सत्ता परिवर्तन को किसी भी तरह परिवर्तन की बयार साबित नहीं किया जा सकता। ज्यादा से ज्यादा इसे राज्य की जनता के सामने विकल्पहीनता की खीझ का प्रकटीकरण मान सकते हैं। उनके सामने दो बुराइयों में से एक को चुनने का विकल्प रखा गया था और उन्होंने सामने मौजूद बुराई को हटा कर दूसरी के लिये रास्ता बना दिया। करुणानिधि के सहारे केन्द्र में कांग्रेसनीत गठबंधन चल रहा है। अभी तक के सबसे बड़े टूजी घोटाले में द्रमुक के मंत्री राजा के साथ ही करुणानिधि की बेटी भी शामिल हैं। उन्हें विस्थापित कर सत्ता में आने वाली जयललिता को भी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने में ऐतराज नहीं है। यह सिद्धांतों की नहीं सुविधाओं की राजनीति है।

केरल का चुनाव भी हालात के बदलने का विश्वास नहीं दिलाते। कम्युनिस्ट पार्टी की भीतरी लड़ाई में उसकी कुछ सीटें कम हुई हैं। लेकिन फिर भी कांग्रेस को मिली 38 सीटों के मुकाबले 45 सीटे लेकर माकपा उससे कहीं आगे है। सच तो यह है कि दिल्ली में सांप्रदायिकता को गाली देने वाली कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ती है। अपने दम पर बहुमत के लिये आवश्यक 71 सीटों से कांग्रेस बहुत पीछे है किन्तु 2006 में 7 सीटों के मुकाबले 2011 में 20 सीटें पाकर मुस्लिम लीग ने गठबंधन को सत्ता तक पहुंचा दिया।

असम के चुनावों में तरुण गोगोई की तीसरी बार विजय को कांग्रेस उपलब्धि की तरह प्रस्तुत कर रही है। राज्य की जनसांख्यिकी का अध्ययन करने वाले जानते हैं कि वहां की राजनीति अब असम के मूल निवासियों के हाथों से प्रायः निकल चुकी है।

अधिकांश विधानसभा क्षेत्रों में बांग्लादेशी घुसपैठिये चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की स्थिति में आ चुके हैं। कांग्रेस ने इन घुसपैठियों को बड़े जतन से पाला है। उन्हें रहने को जमीनें, नागरिकता, पहचान पत्र आदि सुलभ कराये हैं। साथ ही उन्हें यह भी याद दिलाये रखा जाता है कि यदि कोई और सरकार आयी तो उनकी आव-भगत में कमी हो सकती है। हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि कुछ समय पहले एक राष्ट्रीय चैनल पर मध्य आसाम में फहराते पाकिस्तान के झण्डे के वीडियो प्रसारित होने वाद भी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। घुसपैठ पर यदि कोई नियंत्रण नहीं किया गया तो संभव है कि अगले चुनावों में असम विधानसभा से व्यावहारिक रूप से प्रतिपक्ष गायब ही हो जाय।

इन परिस्थितियों में हालिया चुनाव परिणामों को किसी परिवर्तन का संकेत समझ लेना गलतफहमी से ज्यादा नहीं हो सकता । लेकिन इन परिणामों के निहितार्थ का केन्द्र की राजनीति के संदर्भ में विष्लेषण करने पर दो चेतावनियां उभरती हैं। पहली, केन्द्र में सत्ता संभाल रही कांग्रेस ने सारी सीमाएं तोड़ कर मुस्लिम तुष्टीकरण की जिस रणनीति पर काम किया उसके परिणाम अब दिखने लगे हैं। धुर दक्षिण में केरल से लेकर पूर्व में असम तक वह मुस्लिम समर्थन जुटाने और उसके बल पर सरकार बनाने में कामयाब रही है। निश्चित ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को खुश करने के लिये जिस तरह दिग्विजय सिंह ने ओसामा की मौत पर संवेदना प्रकट की है वह बताता है कि कांग्रेस अपनी तुष्टीकरण की नीति के अगले चरण में कहां तक जा सकती है। इसमें यह चेतावनी छिपी है कि अब अन्य राजनैतिक दल भी इस मंत्र को आजमायेंगे और देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र इस तुष्टीकरण की बलि चढ़ेगा।

दूसरी चेतावनी प्रतिपक्ष के सबसे बड़े दल भाजपा के लिये है जो इन चुनावों में अपना पिछला प्रदर्शन भी न दोहरा सकी। निस्संदेह यह उसके लिये आत्ममंथन का अवसर है। देश की धर्मनिरपेक्षता पर कोई आंच न आये यह प्रतिपक्ष की भी जिम्मेदारी है। यदि केन्द्र में सत्तारूढ़ दल इस राष्ट्रीय चरित्र को ही बदल देने पर आमादा है तो प्रतिपक्ष को अपनी भूमिका निभानी ही होगी।Post templates

स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा एवं शोध: राष्ट्रहित में आवश्यक !

डा0 नागेश ठाकुर

यदि हमें अपने वर्तमान समय को संक्षेप में परिभाषित करना हो तो कहेंगे कि हम वैश्वीकरण, उदारीकरण और भूण्डलीकरण के परिणामस्वरूप उभरते विश्व-ग्राम में रह रहे है । आज पूरा विश्व एक विशाल बाजार बन गया है जहां हर राष्ट्र अपना सामान बेचने के लिए समान घरातल पर प्रतियोगिता में लगा है। यह युग उदारीकरण का इसी अर्थ में है क्योंकि राष्ट्रों की भौगोलिक सीमाओं के कारण आर्थिक प्रतिबन्धों को समाप्त अथवा उदार कर दिया गया है, तटकर अथवा आयातकर कम से कम किए जा रहे हैं। यह युग विश्व-ग्राम इस अर्थ में बन गया है कि आज न केवल दूरियां सिमट गई है, आवागमन के साधन व्यापक एवं सस्ते हो गए हैं बल्कि सूचनाओं का आदान-प्रदान सस्ता एवं सर्व-सुलभ हो गया है। आज दूरदर्शन, अन्तर्जाल (इंटरनेट) तथा ई-मेल आदि के द्वारा हम हर क्षण एक दूसरे से जुड़े रह सकते हैं तथा वीडियो- कान्फ्रेसिंग आदि के माध्यम से साक्षात बातचीत भी कर सकते हैं। हम तेजी से बदलते, निर्मम प्रतियोगिता के युग में जी रहे हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसे युग में स्वभाषाऔर स्वदेशकी बात करना क्या उचित होगा ? क्या राष्ट्रवाद की बात करना इस अंतर्राष्ट्रवाद के युग में प्रासंगिक ( त्मसमअंदज) है ?

मेरा यह मानना है कि आज अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपने राष्ट्र तथा अपनी जातीय पहचान को समझना जितना आज जरूरी हे उतना पहले के किसी युग में नहीं था। पहला कारण तो यह है कि सूचना-प्रोद्योगिकी के विकास से जहां ज्ञान के भण्डार खुले हैं, सूचनाओं का आदान प्रदान तीव्र हुआ है वहीं पर हर राष्ट्र के सामने अपनी अस्मिता (प्कमदजपजल) एवं अस्तित्व (म्गपेजमदबम) को बचाने की चुनौती भी आई है अतीत में सांस्कृतिक आदान-प्रदान सीमित स्तर पर होता था परन्तु आज दूरदर्शन और अन्तर्जाल के द्वारा विश्वभर की संस्कृतियां अपने टेलीविजन के पर्दे पर अथवा कम्प्यूटर पर नृत्य करती दिखाई पड़ती है। विश्व की संस्कृतियां आज एक दूसरे के सामने ही नहीं आई बल्कि एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास भी कर हरी है। जो संस्कृति विश्व पर हावी होगी, उसी का माल बिकेगा, वही समृद्ध होगी। यदि पश्चिमी संस्कृति प्रभावी होगी तो दीवाली, होली पर लडडू, बर्फी, जलेबी अथवा मठरी की जगह चौकलेट, बर्गर, पीजा, केक अथवा तरह-तरह के बिस्कुट ही भेंट में दिए जाने लगेगें और घर-घर में उनका प्रचार होगा।

सदियों से जिन मिठाईयों का अविष्कार हमारी संस्कृति ने किया वह समाप्त हो जाऐंगी। गुणवत्ता अथवा उपयोगिता में कम होने के कारण यह नष्ट नहीं होगी, सांस्कृतिक पराजय के कारण होगी । यह भी हो सकता है कि दीवाली, होली जैसे त्योहार हम भूल जाएं तथा हम केवल वेलेंनटाईन-डे ही मनाते रह जाऐं। आज की आर्थिक चुनौतियां हर राष्ट्र को निर्ममतापूर्वक दूसरे राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के लिए उतेजित कर रही है ताकि उसके आर्थिक हित सुरक्षित हो सकें। आज यह स्पष्ट है कि तकनीकी, आर्थिक और सैनिक वर्चस्व के चलते पश्चिम पूरे विश्व पर हावी होने जा रहा है। जिस आर्थिक उदारीकरण में विश्व-कल्याण खोजा जा रहा है वह आर्थिक साम्राजयवादहै जो कि केवल पश्चिम के हितों की रक्षा करने के लिए ही खड़ा किया गया है। आर्थर डंकल के डंकल प्रस्तावों पर खड़ा वैश्वीरकण वास्तव में पश्चिमीकरण है। ऐसी स्थिति में विकासशील राष्ट्रों के सामने अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने, उसे दृढ़ करने के सिवाए उपाये क्या है? यह सांस्कृतिक पहचान ही हमे आर्थिक रूप से सही दिशा में विकास का मार्ग दिखाएगी। आज भारत के लिए वह निर्णायक क्षण आ गया है कि वह अपनी पहचान केवल मेरा भारत महानके नारे से ही न दे बल्कि हमारी महानता का आधार क्या रहा है, क्या हो सकता है उसकी भी खोज करें और जन-जन को उससे जोड़ें। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के अनुसार भारत को यदि अपने को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा करना है तो अपनी पहचान को स्थापित करना ही होगा।

किसी भी राष्ट्र की उन्नति या विकसित होना उस राष्ट्र के प्रति व्यक्ति के जीवन स्तर एवं जीवन मुल्यों के आधार पर आंकी जा सकती है। ऐसा राष्ट्र जो आत्मनिर्भर हो, जन-जन खुशहाल हो, जहां उसकी संस्कृति सुरक्षित हा,े ऐसा राष्ट्र ही वास्तव में विकसित राष्ट्र होता है। राष्ट्रीय स्वाभिमान शुन्य समाज नष्ट हो जाता है। स्वाभिमान तब पनपता है जब स्व पर अभिमान हो जैसे स्वभाषा, स्वदेश इत्यादि। स्वभाषा से ही स्वदेशी एवं स्वदेश प्रेम की भावना जुड़ी होती हैं क्योंक भाषा ही चिंतन का माध्यम होती है। स्वभाषा पर तभी अभिमान हो सकता है जब वह भाषा विश्व में सम्मनित हो, केवल बोलने वाली भाषा सम्मान प्राप्त नही कर सकती केवल यही कारण है कि फ्रांसीसी एवं जर्मन भाषा को बोलने व समझने वालों की संख्या लगभग 2 प्रतिशत होने के बावजूद वे सम्मानित हैं और विश्व में चीनी भाषा के बाद हिन्दी बोलने व समझने वालों की संख्या होने के बावजूद भी हिन्दी भाषा सम्मानित नहीं है। राष्ट्र का स्वाभिमान जहां राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय प्रभुसता के प्रतीक संविधान, स्वतन्त्र विदेश नीति तथा आर्थिक आत्म निर्भरता में देखा जाता है। वहीं राष्ट्रीय भाषा के विकास में भी प्रकट होता है। अपनी भाषा के बिना राष्ट्र गंूगा है। भारत जैसे राष्ट्र में जहां 179 भाषाएं, 544 बोलियां है और संविधान द्वारा स्वीकृत 21 भाषाएं भी है वहां पर एक विदेशी भाषा में अध्ययन- अध्यापन, सरकारी कामकाज, न्यायालय तथा संसद का काम होना अपमानजनक ही कहा जाएगा। स्वभाषाके बिना कैसा स्वाभिमान ? जिसे अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा में बोलने और व्यवहार करने में शर्म आती है, गर्व का अनुभव नहीं होता वह स्वाभिमानी कैसे हो सकता है? स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए स्वभाषा को सम्मान देना उतना ही आवश्यक है जितना जीने के लिए सांस लेना।

आज विश्व का कोई ऐसा विकासित अथवा प्रगतिशाील राष्ट्र नहीं जिसकी अपनी भाषा न हो और जिसे शिक्षा का माध्यम न बनाया गया है। दुर्भाग्य से इस देश में अंग्रेजों के समय हमारी भाषाओं को नष्ट करने का षडयन्त्र रचा गया। लोर्ड मैकाले ने जब पूरे भारत का भ्रमण किया और देखा कि भारत में चारों ओर समृद्धि हैं, यहां के लोग खुशहाल हैं समाज का जीवन उच्च स्तर का है तथा अनेकता होते हुए भी यहां का समाज एक आत्मा में बंधा है तो उसने निष्कर्ष निकाला कि ऐसे देश में लम्बे समय तक अंग्रेज शासन नहीं कर सकते। उसने अंग्रेज सरकार को ऐक प्रारूप बनाकर दिया और उस प्रारूप मे कहा कि अगर भारत में अंग्रेेजों को लंबे समय तक शासन करना है तो यहां की शिक्षा पद्धति को नष्ट करके ऐसी शिक्षा पद्धती लागू करनी होगी जिसे पढ़ने से यहां की अगली आने वाली पीढ़ियां खून से तो भारतीय हों मगर चिंतन के स्तर पर अंग्रेजों के हित को सोचने वाली हो। ऐसी पीढ़ी जो अपनी सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं जीवन पद्धति के प्रति हीनता की भावना रखे और पश्चिमी सभ्यता को महान बनाने का कार्य पूरे भारतवर्ष में करे। इस शिक्षा नीति का सबसे खतरनाक पहलू था सम्पूर्ण माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा का माध्यम, अंग्रेजी को बनाना। केवल आठवीं तक ही मातृभाषा या प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा दे सकती थी। मैकाले मानस पुत्रों ने स्वतंत्र भारत में भी उसके बिछाए जाल को मजबूत किया तथा अंगेजी माध्यम के स्कूलों का जाल बिछा दिया है।

यह मनोविज्ञानिक सत्य है कि मौलिक चिंतन स्वभाषा में ही प्राप्त करने से सम्भव हैं। मानव जिस भाषा में सपने देखता है उसी भाषा में मौलिक चिंतन भी संभव है। सपने स्वभाषा में ही देखे जाते हैं और भौतिक चिंतन की उपज यानि अविष्कार प्रथमतः एक सपना ही होता है । दैनिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली भाषा और पढ़ने लिखने वाली भाषा अलग होने से अभिव्यक्ति प्रभावित होती है। हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की लिपी वैज्ञानिक है और अग्रेजी अवैज्ञानिक।

स्वभाषा में शिक्षा और शोध का कार्य किया जाना क्यों आवश्यक है इसे विस्तार से समझना आवश्यक है। माता और मातृभूमि के पश्चात यदि किसी का स्थान है तो वह मातृभाषा ही है। बच्चा मातृभाषा को तब से सीखने लगता है जब से वह अपनी इन्द्रियों द्वारा बाहरी संसार को जानने लगता है। अनुकरण से मातृभाषा का शिक्षण प्रारम्भ होता है तथा निरन्तर पठन-पाठन और अभ्यास से पुष्ट होता है। मातृभाषा का ज्ञान केवल अक्षर ज्ञान पर आधारित नहीं होता वह तो मां की लोरी और दूध के साथ बच्चे को प्राप्त हो जाता है। मातृभाषा में शिक्षण इस लिए जरूरी है क्योंकि वह संस्कार और परिष्कार की भाषा भी रहती है। भाषा का संस्कृति से गहरा सम्बन्ध रहता हैं। यदि मातृभाषा में शिक्षण होगा तो भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता, शुचिता, संयम, परोपकार तथा त्याग-भावना सहज ही बालक को मिलेंगे। यदि अंग्रजी में शिक्षा प्रारम्भ होगी तो भौतिकवादी चिंतन से जुड़े खान-पान, पहरावे, विरोधी को मिटाने और अपने स्वार्थ को बचाने के भाव सहज ही मिलेंगे। हर भाषा एक निश्चित संस्कृति की उपज होती है, इसलिए जब हम कोई भाषा लिखते है और उसका साहित्य पढ़ते है तो निश्चित रूप से उसकी संस्कृति से भी जुड़ते है उसे आत्मसात करते हैं। यदि हम चाहते हैं कि बच्चे मेरा भारत महानका नारा ही न लगाएं, इसके अर्थ को भी समझे तो जरूरी है कि शिक्षा का माध्यम अपनी भाषाएं हो। अपनी संस्कृति को अपनाए बिना, उससे जुड़े बिना कोई स्वाभिमानी नहीं हो सकता। किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र की पहचान उसकी संस्कृति ही हुआ करती है। अंग्रेजों ने सीधे हमारी संस्कृति ही पर प्रहार न करके इसे नष्ट करने के लिए, नीचा दिखाने के लिए, हमारी भाषाओं को नष्ट करने का रास्ता चुना। 18वीं शताब्दी तक अंग्रेजों के आने से पहले सारी शिक्षा भारतीय भाषाओं में थी।

स्वभाषा में शिक्षा और शोध पर जोर देना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि बच्चे की प्रतिभा का विकास, मौलिक चिन्तन का विकास, अपनी भाषा में ही संभव है। वैज्ञानिक दृष्टि से सभी उन्नत राष्ट्र चाहे जापान हो या रूस, अमेरिका हो या जर्मर्नी इंग्लैंड अथवा फ्रांस, सभी मातृभाषा में शिक्षा देते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भी जब तक भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा था तब हमारे देश ने मेघनाथ साहा, जगदीश चंद्र बसु एवं सी0वी0 रमन जैसे महान वैज्ञानिको को जन्म दिया है। मातृभाषा या स्वभाषा में जब बच्चा पढ़ना प्रारम्भ करता है तो वह घर-परिवार से असंख्य संकल्पनाएं सीख कर आता है उसे केवल वर्णमाला सीख कर उससे लिखना ही सीखना होता है। बच्चा रोटीशब्द जानता है, स्कूल में उसे रोटीवर्णमाला सीखकर लिखने का अभ्यास ही करना होता है। उसे समझाना नहीं पड़ता कि रोटी क्या है। यदि ब्रेडबोलेंगे तो उसे पहले वर्णमाला सिखाएंगे, फिर ब्रेड क्या है यह बताएंगे और फिर दोनों को जोड़कर बच्चा सीखेगा कि ब्रेड किसे कहते हैं। यदि ग्रामीण परिवेश के बच्चे के सामने डबल रोटीपड़ी होगी तो उसे समझ नहीं आएगा कि थाली में पड़ी तवे की रोटी यदि रोटी है तो फिर डबल रोटीया ब्रेड क्या है। कहने का भाव यह है कि विदेशी भाषा में वस्तु की संकल्पना और उसको व्यक्त करने वाला प्रतीक एक साथ सिखना पड़ता है, जिससे बच्चे के मस्तिष्क पर अतिरिक्त दबाब पड़ता है और वह रट्टेबाजी की ओर अग्रसर होता है।

जो शक्ति मौलिक चिन्तन में लगनी थी वह शब्द रटने में व्यय होती है जबकि मातृभाषा के अधिकांश शब्द बच्चा सामाजिक व्यवहार में सीख जाता है और शब्दों में छिपी संकल्पना से भी परिचित होता है, उसे केवल वर्णमाला ही सीखनी होती है। विदेशी भाषा के पक्षधर कहते हैं कि अंग्रेजी पढ़कर बच्चा विश्वभर में घूम सकता है, बाहर का ज्ञान अर्जित कर सकता है परन्तु हमारा मानना है कि जिसका मौलिक चिन्तन अवरूद्ध है वह बाहर के ज्ञान का भी सीमित लाभ ही उठा पाएगा। गांधी जी ने कहा था कि अंग्रेजी भले ही बाहरी विश्व को देखने की खिड़की हो परन्तु अपने घर में जाने के लिए तो दरवाजा अर्थात स्वभाषा का ही प्रयोग होना चाहिए। जब शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा को बनाते हैं और बच्चे को अपनी भाषा से अपरिचित रखते हैं तो उसकी हालत उस व्यक्ति की सी होती है जो कि अपने घर में खिड़की से घुसने के लिए विवश है। अब आप जानते हैं कि खिड़कियों से घर में घुसने वालों को क्या कहा जाता है।

वैज्ञानिक शोध को मुलतः दो भागांे में बांटा जा सकता है। मौलिक शोध एवं अनुप्रयुक्त शोध। मौलिक शोध प्राकृतिक नियमों पर आधारित होता है तथा अनुप्रयुक्त शोध देश विशेष की समाज व्यवस्था, जलवायु, पर्यावरण एवं संसाधनों पर आधारित होता है। मौलिक शोध सभी देशों के लिए सम्मान होता है तथा उससे नियमों या सिद्धांतों का पता लगता है जैसे गुरूत्वाकर्षण का नियम। इन नियमों का अनुप्रयोग करते ही धरती से जुड़ा शोध होता है जिससे देश विशेष के अनुकुल प्रद्योगिकी का विकास होता है। शोध चाहे मौलिक हो या अनुप्रयुक्त पहली आवश्यकता है मौलिक चिंतन। मौलिक चिंतन के बिना कोई भी व्यक्ति सफल वैज्ञानिक या अच्छा शोधकर्ता नहीं बन सकता। दूसरी आवश्यकता है शोध लेखन के लिए भाषा पर अधिकार। व्यक्ति कितना भी चिंतन कर ले यदि उसका भाषा पर अधिकार नहीं है तो वह व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त नहीं कर सकता। ऐसे में वह अपने शोध की जानकारी दूसरों को नहीं प्रदान कर सकता।

तीसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता है कि देश की मूलभूत मान्यताओं एवं आवश्यकताओं को गहराई से समझा जाए तथा उसके परिवेश से परिचित हुआ जाए। भारत की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या गांव में हैं अतः भारत से जुड़ने के लिए अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़ना आवश्यक हैं। विज्ञान के क्षेत्र में भारत का स्वर्णकाल वह समय था जब हमारे देश मे स्वभाषा का प्रचार था और वही देशभर में पठन-पाठन और चिन्तन-मनन की प्रमुख भाषा थी। हमारी सारी मौलिक उपलब्धियां चाहे वह ज्योतिष में हो या बीज गणित में, शल्य-चिकित्सा में हो या आयुर्वेद में, रसायन शास्त्र में हो या भौतिक शास्त्र में उसी समय की है। दर्शन, साहित्य और आध्यात्म में ही नहीं कलाओं में भी चर्म उत्कर्ष उसी समय हुआ। मध्यकाल तक आते-आते भारतीय भाषाओं का भी ह्रास हुआ और भारतीय वैज्ञानिक चिन्तन का भी। आज भी हमारी वैज्ञानिक उन्नति मौलिक चिन्तन पर कम तथा पश्चिमी शोध पर अधिक टिकी है। हम परमाणु ऊर्जा युरेनियम के माध्यम से खोज रहे है। यूरेनियम पश्चिम में अधिक है। हमारे यहां थोरियम अधिक है, हमें परमाणु ऊर्जा अधिकाधिक थोरियम आधारित परमाणु भटियों में खोजनी चाहिए।

विज्ञान की शिक्षा और शोध का स्तर भारत में गिर रहा है, युवा विज्ञान से विमुख हो रहे है। यदि हिमाचल का ही उदाहरण लें तो 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले मात्र 20 प्रतिशत छात्र विज्ञान विषय पढ़ते हैं जबकि 10वीं तक सभी उसे अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ते हैं। दसवीं तक हिन्दी में विज्ञान पढ़ा जाता है, 11-12वीं में अधिकांश विद्यालयों में अध्यापक अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप छात्र अंग्रेजी में निपुण न होने से विज्ञान की पढ़ाई छोड़ जाते हैं। हम अंग्रेजी के कारण मेधावी ग्रामीण छात्रों को विज्ञान से वंचित कर रहे हैं। यदि 11-12वीं में अनिवार्य रूप से हिन्दी माध्यम में विज्ञान की शिक्षा का प्रावधान हो तो लाखों ग्रामीण छात्र विज्ञान पढ़ेंगे।

विदेशी भाषा को महत्व देकर हमने अपने देश में विज्ञान को अंग्रेजी का गुलाम बना दिया। अंग्रेजी नहीं आती तो विज्ञान नहीं पढ़ा जा सकता। लाखों कारीगर, कुशल किसान अपने अनुभव महाविद्यालयों तक नहीं पहुंचा पाते क्योंिक वे अंग्रेजी नहीं जानते। सारा वैज्ञानिक शोध-कार्य अंग्रेजी में होने से भारतीय प्रतिभाओं का योगदान नहीं मिल पाता। शोध का जो व्यवहारिक या अनुप्रयुक्त रूप हैं, उसमें भी कमी आ रही है। हमारे किसान, कारीगर के लिए कौन सी तकनीक उपयुक्त है वह अंग्रेजी पढ़े शोधकर्ता नहीं समझ पाते क्योंकि वे किसान और कारीगर की भाषा और जरूरत को नही समझते केवल पश्चिम की नकल करते हैं।

भारतीय वैज्ञानिक जब अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर आगे आते है तो भारतीय वैज्ञानिक विरासत जो संस्कृत अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में ह,ै उससे पूरी तरह कट जाते हैं और उसे घटिया मानने लगते हैं । यदि भारतीय वैज्ञानिक चाहते हैं कि राष्ट्र के लिए उपयोगी खोजें करें तो उन्हंे यहां के सामान्य किसान-कारीगर से अपनापन स्थापित करना होगा। भारतीय भाषाओं में उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान को परख कर प्रामाणिक घोषित करना होगा और इसके आधार पर अपनी आगामी शोध परियोजनाएं बनानी होगी। आज के इस प्रतियोगात्मक युग में दो ही तरह के राष्ट्र रह जाएगें-एक वे जो ज्ञान का उत्पादन करते हैं दूसरे वे जो ज्ञान का उपभोग करते है। आज ज्ञान मुफ्त में नहीं मिलता, नई तकनीक, सूचना पाने के लिए रॉयल्टी सा पेटेन्ट अधिकार के रूप में कीमत चुकानी पड़ती है। इस प्रकार ज्ञान के उत्पादक राष्ट्र अमीर होते जाएंगे और उपभोक्ता राष्ट्र गरीब होते जाऐंगे। अमरीका में विश्व के 80 प्रतिशत नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक पढ़ा रहे हैं क्योंकि वह ज्ञान-उत्पादक लोगों को खरीदकर उनसे ज्ञान पैदा करवाता है और फिर मनमाने दामों पर बेचता है।

वर्तमान समय भारत के लिए चुनौती भरा है जहां दुनिया भर के शक्तिशाली राष्ट्र भारत को एक उभरती हुई शक्ति के रूप में देख रहे हैं वहीं दूसरी ओर भारत दुनिया का सबसे बड़ा युवा जनसंख्या वाला देश भी है। इस युवा पीढ़ी को राष्ट्र के निर्माण में लगाने के लिए उनके हृदयों में देश के प्रति स्वाभिमान व स्वदेश प्रेम की भावना भरने एवं अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को गहराई से समझने हेतु स्वभाषा महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। भारत का स्वाभिमान, भारत की उन्नति इस बात पर निर्भर करेगी कि हम कब ज्ञान के उत्पादक राष्ट्रों में अग्रणी बनेंगे। इसके लिए मौलिक शोध की जरूरत है जो मौलिक चिंतन से आएगी और जिसका आधार स्वभाषा में अध्धयन अध्यापन ही बन सकता हैं।

भौतिकी विज्ञान विभाग, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला

एआईईईई : सीबीएसई बोर्ड की साख़ पर लगा बट्टा

लखनऊ। 1 May , 2011 शिक्षा क्षेत्र में हो रहे नैतिक पतन ने पूरी ब्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया। सीबीएसई बोर्ड द्वारा संचालित ऑल इंडिया इंजीनियरिंग एंट्रेंस एक्जाम (एआईईईई) के पेपर लीक होने से जहाँ एक तरफ इस बोर्ड की साख़ पर बट्टा लगा वहीं शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त खामिया एक बार फिर जनता के सामने उजागर हुयी हैं। इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के पेपर लीक होने का तात्कालिक परिणाम भले ही यह नजर आ रहा हो कि इससे विद्यार्थियों को मानसिक परेशानी का सामना करना पड़ा और कुछ देर के लिए उलझन की स्थिति पैदा हुई, लेकिन इसके कारण कहीं ज्यादा गहरे और परिणाम दूरगामी हैं। महत्वपूर्ण परीक्षाओं के पेपर लीक होना अब आम बात होती जा रही है। आज फिर ये साबित हो गया कि पुरानी गलतियों से हमारे देश में कोई सबक नहीं लिया जाता। इंजीनियर बनने का ख्वाब देख रहे 15 लाख छात्रों के पैरों तले जमीन उस समय खिसक गयी जब उन्हें पता चला कि ऑल इंडिया इंजीनियरिंग एंट्रेंस एक्जाम का पर्चा लीक हो गया। नतीजा ये कि परीक्षा कराने वाली सीबीएसई को नए पेपर के साथ और नए वक्त पर परीक्षा करानी पड़ी।

इंजीनियरिंग का ये पेपर परीक्षा शुरू होने से 10 घंटे पहले ही आ गया था। इंजीनियरिंग का ये वो पेपर है जिसे परीक्षा के बाद भी सेंटर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता। यही पेपर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 6 लाख रुपए में बिका। पेपर लीक होने की खबर देश में आग की तरह फैली। पेपर लीक मामले में बताया जा रहा है कि कानपुर से दो लोगों को गिरफ्तार किया गया है। 15 लाख छात्रों के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। हजारों छात्र ऐसे भी थे जो चिलचिलाती गर्मी में अपना शहर छोड़कर दूसरे शहर में परीक्षा देने के लिए पहुंचे थे।

लीक हुए इंजीनियरिंग के पेपर का फैक्स मिलने के बाद झटका सीबीएसई को भी लगा जिस पर परीक्षा कराने की जिम्मेदारी थी। ऐसे में चंद मिनटों बाद ही शुरू होने जा रही परीक्षा को रोकने का फैसला किया गया। आनन-फानन में पुणे, लखनऊ, दिल्ली, कानपुर, तमाम सेंटरों से ये खबर आने लगी कि इंजीनियरिंग की परीक्षा रोक दी गई है। जिन केंद्रों पर छात्रों में पेपर बांटा जा चुका था वहां उनसे पेपर छीन लिया गया। परीक्षा केंद्रों से छात्रों को बाहर धकेलने के बाद सीबीएसई ने फरमान सुना दिया कि परीक्षा रद्द नहीं होगी। तय ये किया गया कि परीक्षा के लिए तैयार किए गए तीन सेट में से दूसरा पेपर छात्रों में बांटा जाएगा। परीक्षा तय समय से 3 घंटे देरी से होगी। साढ़े 9 बजे होने वाली पहली पाली की परीक्षा दोपहर 12 बजे से कराई जाएगी। दूसरी पाली की परीक्षा शाम 4 बजे से होगी।

लेकिन ये फरमान सुनाते वक्त सीबीएसई के आला अफसर ये भूल गए कि एक मई को ही सेना के मेडिकल कॉलेजों के लिए भी भर्ती परीक्षा होनी तय है। एएफएमसी की इस परीक्षा का समय दोपहर के 2 बजे था। सीबीएसई ने ये ध्यान ही नहीं रखा कि जो छात्र इंजीनियरिंग का तीन घंटे तक चलने वाला पहला पेपर देंगे वो 2 बजे से एएफएमसी की परीक्षा कैसे दे पाएंगे। सीबीएसई ये भी भूल गई कि एक ही सेंटर पर एक ही वक्त में इंजीनियरिंग और मेडिकल की परीक्षा कैसे होगी। क्योंकि हजारों की तादाद में छात्र इंजीनियरिंग और मेडिकल दोनों ही परीक्षाओं में बैठते हैं।

पेपर लीक के चलते पहले से परेशान छात्रों पर इस फैसले ने दोहरी मार की। घंटों तक असमंजस की हालत बनी रही। छात्रों की परेशानी बढ़ती देख आखिरकार सेना के अफसर हरकत में आए। एएफएमसी ने छात्रों को राहत देते हुए ये फैसला किया कि वो दोपहर 2 बजे के बजाय 4 बजे से परीक्षा शुरू कराएंगे। इससे जो छात्र इंजीनियरिंग का सिर्फ पहला पेपर देकर मेडिकल का इम्तिहान देना चाहते थे। उनकी मुश्किल खत्म हो गई। मालूम हो कि इंजीनियरिंग का दूसरा पेपर देना उन्हीं छात्रों के लिए जरूरी होता है जो आर्टिटेक्चर की पढ़ाई करना चाहते हैं। वैसे सीबीएसई के रवैये को देखते हुए सेना के अफसर भी अपनी नाराजगी छिपा नहीं पाए।

गौरतलब है कि इंजीनियरिंग की परीक्षा के लिए पहले 24 अप्रैल की तारीख तय की गई थी। लेकिन सीबीएसई ने बिना सोचे-समझे तारीख 1 मई कर दी जबकि इस दिन पहले से ही सेना के मेडिकल कॉलेजों के लिए परीक्षा होनी तय थी। पेपर लीक होने के बाद घंटों तक मचे बवाल की ये एक बड़ी वजह रही। छात्रों की परेशानी और हर तरफ से बढ़ते दबाव को देखते हुए सीबीएसई को आखिरकार एक और फैसला करना पड़ा।

सीबीएसई का फैसला किया कि जो छात्र एएफएमसी के चलते रविवार की परीक्षा नहीं दे पाए उनकी परीक्षा 8 मई को दोबारा ली जाएगी। इस खबर के बाद छात्रों के जान में जान आई। विदित हो कि एआईईईई का पेपर दो बक्सों के भीतर चार तालों में बंद होकर पहुंचता है। को-ऑर्डिनेटर के मुताबिक ऊपर के बक्से में लगे दो तालों की चाबियां नहीं होती। इन्हें तोड़ना पड़ता है। उसके भीतर रखे बक्से की चाबियां खोलकर पेपर बाहर निकाला जाता है। यह बक्सा बैंक में रखा रहता है और परीक्षा के कुछ समय पहले ही बाहर निकाला जाता है।

आज देश में चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जाहिर है कि शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन एसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या इंजीनियरिंग जैसे अहम परीक्षाओं के पर्चा लीक होने को रोक पाना प्रशासन के बस की बात नहीं। यह इसलिए और भी ज्यादा चिंता का विषय है क्योंकि अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा जैसी महत्वपूर्ण परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थी कल देश के गंभीर और जिम्मेदार पदों पर होंगे और उनके कंधों पर महत्वपूर्ण दायित्व होंगे।

(अवनीश सिंह की रिपोर्ट)

आतंकवाद से युद्ध

विजय कुमार

सरकार लगातार हो रही आतंकी घटनाओं से बहुत दुखी थी। रेल हो या बस, मंदिर हो या मस्जिद, विद्यालय हो या बाजार, दिन हो या रात, आतंकवादी जब चाहें, जहां चाहें, विस्फोट कर उसकी नाक में दम कर रहे थे। विधानसभा चुनाव का खतरा सिर पर था। सरकार को लगा कि यदि इस बारे में कुछ न किया गया, तो जनता कहीं उन्हें वर्तमान से भूतपूर्व न कर दे। अतः इस विषय पर एक बैठक करने का निर्णय लिया गया।

बैठक का एजेंडा चूंकि काफी गंभीर था, इसलिए दिगम्बरम्, चिग्विजय सिंह, आजाद नबी गुलाम, अहमक पटेल, बाबुल पांधी आदि कई बड़े नेता वहां आये थे। आना तो श्री मगनमोहन सिंह को भी था; पर वे इन दिनों खुद पर लग रहे आरोपों से बहुत दुःखी थे। उन्हें अपनी पगड़ी के साफ होने पर गर्व था; पर अब उसके अंदर के खटमल बाहर निकलने लगे थे। हर दिन हो रही छीछालेदर से उनका मूड काफी खराब था। वे कठपुतली की तरह नाचते हुए थक चुके थे। अतः उन्होंने बुखार के बहाने आने से मना कर दिया।

इसके अतिरिक्त पुलिस, प्रशासन और सेना के कुछ बड़े अधिकारी भी आये थे। चाय-नाश्ते के बाद बैठक प्रारम्भ हुई। श्री दिगम्बरम् ने प्रस्तावना में कहा कि आतंकवादी घटनाओं से पूरी दुनिया में हमारी छवि खराब हो रही है। जनता हमसे कुछ परिणाम चाहती है। अतः जैसे भी हो, हमें देश के सामने कुछ करके दिखाना होगा।

उत्तर प्रदेश से आये शर्मा जी काफी कड़क पुलिस अधिकारी माने जाते थे। उन्होंने कहा- सर, आतंकवाद को मिटाने के लिए उसकी जड़ पर प्रहार करना होगा। हमारे यहां आजमगढ़ को आतंकवाद की नर्सरी माना जाता है। उसके साथ ही देवबंद और अलीगढ़ पर भी हमें कुछ अधिक ध्यान देना होगा।

तो इसमें परेशानी क्या है? दिगम्बरम् ने पूछा।

सर, मैं क्या कहूं; इस पर न लखनऊ सहमत है और न दिल्ली।

वे कहना तो और भी कुछ चाहते थे; पर इस बात से चिग्विजय सिंह के चेहरे के भाव बदलने लगे। इसलिए उन्होंने अधिक बोलना उचित नहीं समझा।

बिग्रेडियर वर्मा तीस साल से सेना में थे। उनका अधिकांश समय सीमावर्ती क्षेत्रों में ही बीता था। वे बोले- पाकिस्तान से घुसपैठियों का आना लगातार जारी है। वे हथियार भी लाते हैं और पैसा भी। इससे ही कश्मीर घाटी में आतंकवाद फैल रहा है। यदि कश्मीर दो साल के लिए सेना के हवाले कर दें, तो हम इस पर काबू पा लेंगे।

इससे आजाद नबी गुलाम के माथे पर पसीना छलकने लगा; पर वर्मा जी ने बोलना जारी रखा- आतंकियों से बात करने से सेना का मनोबल गिरता है। अनुशासन के कारण सैनिक बोलते तो नहीं है; पर अंदर ही अंदर वे सुलग रहे हैं। वे कब तक गाली, गोली और पत्थर खाएंगे? सरकारी वार्ताकार आतंकियों से तो मिल रहे हैं; पर क्या वे देशभक्तों और सेना के लोगों की बात भी सुनेंगे?

सिन्हा साहब को प्रशासन का अच्छा अनुभव था। उन्होंने संसद पर हमले के अपराधी मोहम्मद अफजल को अब तक फांसी न देने का मुद्दा उठाते हुए कहा कि गिलानी और अरुन्धति जैसे देशद्रोही राजधानी में सरकार की नाक के नीचे आकर बकवास कर जाते हैं; पर उनका कुछ नहीं बिगड़ता। इससे जनता में सरकार की साख मिट्टी हो रही है।

इससे सुपर सरकार के सलाहकार अहमक पटेल का पारा चढ़ गया- आपको राजधानी देखनी है और हमें पूरा देश। यदि उसे फांसी दे देंगे, तो देश में दंगा हो जाएगा। तब कानून व्यवस्था कौन संभालेगा? आज यदि अफजल को फांसी दे देंगे, तो जनता कल कसाब को फांसी देने की मांग करेगी। ऐसे में तो हमें एक फांसी मंत्रालय ही बनाना पड़ेगा। हमारे पास फांसी से भी अधिक महत्वपूर्ण कई काम हैं।

बाबुल पांधी सब सुन रहे थे। जब दिगम्बरम् ने उनसे बोलने की प्रार्थना की, तो उन्होंने चिग्विजय सिंह की ओर संकेत कर दिया। इस पर चिग्विजय सिंह ने एक कहानी सुनाई- मैदान में कुछ युवक निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे थे। एक बुजुर्ग ने देखा कि अधिकांश की गोलियां बोर्ड पर बने गोलाकार चित्रों के आसपास लगी हैं; पर एक के निशाने गोलों के ठीक बीच लगे थे। उन्होंने उस प्रतिभाशाली युवक से इस सौ प्रतिशत सफलता का रहस्य पूछा। युवक ने कहा, यह तो बड़ा आसान है। बाकी लोग पहले गोला बनाकर फिर गोली मारते हैं। मैं जहां गोली लगती है, वहां गोला बना देता हूं।

यह कहानी सुनाकर चिग्विजय सिंह ने सबकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा- क्या समझे?

सबको चुप देखकर वे फिर बोले- आतंकवादियों को ढूंढकर पकड़ना बहुत कठिन है; पर कुछ लोगों को पकड़कर उन्हें आतंकवादी घोषित करना तो आसान है। हमें चुनाव में मुसलमान वोट पाने के लिए किसी भी तरह हिन्दुओं को आतंकवादी घोषित करना है। इसीलिए हमने कुछ हिन्दुओं को पकड़ा है। कुछ और को भी घेरने व उनके माथे पर आतंकी हमलों का ठीकरा फोड़ने का प्रयास जारी है। सी.बी.आई. और ए.टी.एस. को भी हमने इस काम में लगाया है। मीडिया का एक बड़ा समूह भी हमारे साथ है। भगवा आतंकवाद की बात जितनी जोर पकड़ेगी, हमारे वोट उतने पक्के होंगे। हमारा काम चुनाव लड़ना है, आतंक से लड़ना नहीं; पर चुनाव जीतने के लिए यह आवश्यक है कि हम आतंक से लड़ते हुए नजर आयें।

अब दिगम्बरम् के पास भी कहने को कुछ शेष नहीं बचा था। अतः बैठक समाप्त घोषित कर दी गयी।

(लेखक : राष्ट्रधर्ममासिक के पूर्व सहायक सम्पादक हैं।)