विजय कुमार
सरकार लगातार हो रही आतंकी घटनाओं से बहुत दुखी थी। रेल हो या बस, मंदिर हो या मस्जिद, विद्यालय हो या बाजार, दिन हो या रात, आतंकवादी जब चाहें, जहां चाहें, विस्फोट कर उसकी नाक में दम कर रहे थे। विधानसभा चुनाव का खतरा सिर पर था। सरकार को लगा कि यदि इस बारे में कुछ न किया गया, तो जनता कहीं उन्हें वर्तमान से भूतपूर्व न कर दे। अतः इस विषय पर एक बैठक करने का निर्णय लिया गया।
बैठक का एजेंडा चूंकि काफी गंभीर था, इसलिए दिगम्बरम्, चिग्विजय सिंह, आजाद नबी गुलाम, अहमक पटेल, बाबुल पांधी आदि कई बड़े नेता वहां आये थे। आना तो श्री मगनमोहन सिंह को भी था; पर वे इन दिनों खुद पर लग रहे आरोपों से बहुत दुःखी थे। उन्हें अपनी पगड़ी के साफ होने पर गर्व था; पर अब उसके अंदर के खटमल बाहर निकलने लगे थे। हर दिन हो रही छीछालेदर से उनका मूड काफी खराब था। वे कठपुतली की तरह नाचते हुए थक चुके थे। अतः उन्होंने बुखार के बहाने आने से मना कर दिया।
इसके अतिरिक्त पुलिस, प्रशासन और सेना के कुछ बड़े अधिकारी भी आये थे। चाय-नाश्ते के बाद बैठक प्रारम्भ हुई। श्री दिगम्बरम् ने प्रस्तावना में कहा कि आतंकवादी घटनाओं से पूरी दुनिया में हमारी छवि खराब हो रही है। जनता हमसे कुछ परिणाम चाहती है। अतः जैसे भी हो, हमें देश के सामने कुछ करके दिखाना होगा।
उत्तर प्रदेश से आये शर्मा जी काफी कड़क पुलिस अधिकारी माने जाते थे। उन्होंने कहा- सर, आतंकवाद को मिटाने के लिए उसकी जड़ पर प्रहार करना होगा। हमारे यहां आजमगढ़ को आतंकवाद की नर्सरी माना जाता है। उसके साथ ही देवबंद और अलीगढ़ पर भी हमें कुछ अधिक ध्यान देना होगा।
तो इसमें परेशानी क्या है? दिगम्बरम् ने पूछा।
सर, मैं क्या कहूं; इस पर न लखनऊ सहमत है और न दिल्ली।
वे कहना तो और भी कुछ चाहते थे; पर इस बात से चिग्विजय सिंह के चेहरे के भाव बदलने लगे। इसलिए उन्होंने अधिक बोलना उचित नहीं समझा।
बिग्रेडियर वर्मा तीस साल से सेना में थे। उनका अधिकांश समय सीमावर्ती क्षेत्रों में ही बीता था। वे बोले- पाकिस्तान से घुसपैठियों का आना लगातार जारी है। वे हथियार भी लाते हैं और पैसा भी। इससे ही कश्मीर घाटी में आतंकवाद फैल रहा है। यदि कश्मीर दो साल के लिए सेना के हवाले कर दें, तो हम इस पर काबू पा लेंगे।
इससे आजाद नबी गुलाम के माथे पर पसीना छलकने लगा; पर वर्मा जी ने बोलना जारी रखा- आतंकियों से बात करने से सेना का मनोबल गिरता है। अनुशासन के कारण सैनिक बोलते तो नहीं है; पर अंदर ही अंदर वे सुलग रहे हैं। वे कब तक गाली, गोली और पत्थर खाएंगे? सरकारी वार्ताकार आतंकियों से तो मिल रहे हैं; पर क्या वे देशभक्तों और सेना के लोगों की बात भी सुनेंगे?
सिन्हा साहब को प्रशासन का अच्छा अनुभव था। उन्होंने संसद पर हमले के अपराधी मोहम्मद अफजल को अब तक फांसी न देने का मुद्दा उठाते हुए कहा कि गिलानी और अरुन्धति जैसे देशद्रोही राजधानी में सरकार की नाक के नीचे आकर बकवास कर जाते हैं; पर उनका कुछ नहीं बिगड़ता। इससे जनता में सरकार की साख मिट्टी हो रही है।
इससे सुपर सरकार के सलाहकार अहमक पटेल का पारा चढ़ गया- आपको राजधानी देखनी है और हमें पूरा देश। यदि उसे फांसी दे देंगे, तो देश में दंगा हो जाएगा। तब कानून व्यवस्था कौन संभालेगा? आज यदि अफजल को फांसी दे देंगे, तो जनता कल कसाब को फांसी देने की मांग करेगी। ऐसे में तो हमें एक फांसी मंत्रालय ही बनाना पड़ेगा। हमारे पास फांसी से भी अधिक महत्वपूर्ण कई काम हैं।
बाबुल पांधी सब सुन रहे थे। जब दिगम्बरम् ने उनसे बोलने की प्रार्थना की, तो उन्होंने चिग्विजय सिंह की ओर संकेत कर दिया। इस पर चिग्विजय सिंह ने एक कहानी सुनाई- मैदान में कुछ युवक निशानेबाजी का अभ्यास कर रहे थे। एक बुजुर्ग ने देखा कि अधिकांश की गोलियां बोर्ड पर बने गोलाकार चित्रों के आसपास लगी हैं; पर एक के निशाने गोलों के ठीक बीच लगे थे। उन्होंने उस प्रतिभाशाली युवक से इस सौ प्रतिशत सफलता का रहस्य पूछा। युवक ने कहा, यह तो बड़ा आसान है। बाकी लोग पहले गोला बनाकर फिर गोली मारते हैं। मैं जहां गोली लगती है, वहां गोला बना देता हूं।
यह कहानी सुनाकर चिग्विजय सिंह ने सबकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा- क्या समझे?
सबको चुप देखकर वे फिर बोले- आतंकवादियों को ढूंढकर पकड़ना बहुत कठिन है; पर कुछ लोगों को पकड़कर उन्हें आतंकवादी घोषित करना तो आसान है। हमें चुनाव में मुसलमान वोट पाने के लिए किसी भी तरह हिन्दुओं को आतंकवादी घोषित करना है। इसीलिए हमने कुछ हिन्दुओं को पकड़ा है। कुछ और को भी घेरने व उनके माथे पर आतंकी हमलों का ठीकरा फोड़ने का प्रयास जारी है। सी.बी.आई. और ए.टी.एस. को भी हमने इस काम में लगाया है। मीडिया का एक बड़ा समूह भी हमारे साथ है। भगवा आतंकवाद की बात जितनी जोर पकड़ेगी, हमारे वोट उतने पक्के होंगे। हमारा काम चुनाव लड़ना है, आतंक से लड़ना नहीं; पर चुनाव जीतने के लिए यह आवश्यक है कि हम आतंक से लड़ते हुए नजर आयें।
अब दिगम्बरम् के पास भी कहने को कुछ शेष नहीं बचा था। अतः बैठक समाप्त घोषित कर दी गयी।
(लेखक : ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक के पूर्व सहायक सम्पादक हैं।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें