सोमवार, 18 अप्रैल 2011

ऐसे मिटाएँ भ्रष्टाचार

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भारत की राजनीति में आज भ्रष्टाचार जितना बड़ा मुद्दा बन गया है, पहले कभी नहीं बना लेकिन अचंभा है कि किसी के पास उसका कोई ठोस इलाज़ दिखाई नहीं पड़ता। प्रधानमंत्री माफी मांग लेते हैं और विपक्षी नेता उन्हें तुरंत माफ कर देती हैं। विपक्ष संयुक्त संसदीय कमेटी बिठाने का आग्रह करता है और सत्ता-पक्ष बिहार की नायिका की तरह पहले नखरे करता है, संसद बंद हो जाती है और फिर वह खुद ढेर हो जाता है। दोनों के बीच अजीब-सी जुगलबंदी चल रही है। न्यायपालिका अगर चाबुक नहीं फटकारती तो सरकार और संसद क्या कर रही हैं, यह देश को पता ही नहीं चलता। दोनों आत्म-मुग्ध हैं कि उन्होंने संसदीय जॉंच कमेटी बिठा दी है।

यहॉं मूल प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका का हस्तक्षेप और जॉंच कमेटियाँ देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करवा सकेंगीं ? उनकी अपनी सीमाएं हैं। अदालतें सजा तो तभी दे सकती हैं, जबकि भ्रष्ट आचरण सिद्ध हो। सिद्ध कौन करेगा ? सरकारी वकील और सरकारी जॉंच एजेंसियॉं ? वे क्यों करेंगी, कैसे करेंगी ? सरकार अपना, अपने नेताओं का और अपने अफसरों का गला खुद क्यों काटेगी ? बोफोर्स घोटाले का क्या हुआ ? 60 करोड़ के घोटाले की जॉंच में ढाई सौ करोड़ खर्च हो गए। 25 साल बाद रो-धोकर सरकार ने सारे मामले पर ढक्कन दबा दिया। हसन अली न तो नेता है न अफसर ! उसके विरूद्ध अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई ? अदालतों की चीख-पुकार के बावजूद 79 हजार करोड़ के हर्जाने में से अभी तक उससे एक पाई भी वसूल नहीं हुई। आखिर-क्यों ? क्योंकि वह तो सिर्फ मुखौटा है। असली चेहरे तो कोई दूसरे ही हैं । ये चेहरे अपने मुखौटे कों नुचने कैसे देंगे ?

संसदीय कमेटियॉं और एजेंसियों की जांच तो वक्त काटने का बहाना है। जॉंच के नतीजे आने तक लोग सब कुछ भूल चुके होंगे। नेताओं को यह पता है। यदि वे सचमुच भ्र्रष्टाचार के विरूद्ध होते तो राष्ट्रकुल खेल और फोन-घोटाले की सारी राषि अब तक ब्याज समेत वसूल कर लेते। सारे अपराधियों और उनके सहायकों की चल-अचल संपत्ति जब्त कर लेते और ऐसा माहौल बना देते कि भावी अपराधियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाती। इसमें शक नहीं कि इस तरह का प्रकंपकारी कदम कोई साहसिक नेता ही उठा सकता है लेकिन ऐसे नेतृत्व के अभाव में कम से कम हमारी सरकार और हमारी संसद कुछ कम आक्रामक कदम तो उठा ही सकती है। ये कदम दूरगामी और बुनियादी होंगे।

सबसे पहला काम तो यह होना चाहिए कि हमारी शासन व्यवस्था के चारों स्तंभों का वित्तीय ब्यौरा नियमित रूप से देश के सामने पेश किया जाए। ये चार स्तंभ हैं विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका। ये चारों स्तंभ अत्यंत शक्तिशाली हैं। जहां शक्ति है, वहॉं भ्रष्टाचार है। विधानपालिका याने सिर्फ संसद नहीं, विधानसभाएं, विधान परिषदें, नगर-निगम नगरपालिकाएं और पंचायतें भी। इन सबके सदस्यों की चल-अचल संपत्तियों का ब्यौरा सिर्फ चुनाव के वक्त ही नहीं, हर साल सार्वजनिक किया जाना चाहिए। यह भी काफी नहीं है। समस्त राजनीतिक दलों के समस्त पदाधिकारियों राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर जिला कार्यकारिणी के सदस्यों तक का वार्षिक वित्तीय ब्यौरा जनता के सामने होना चाहिए। यह छोटा-सा कानूनी प्रावधान भारत की राजनीति की जबर्दस्त सफाई कर देगा। जो पैसा बनाने के लिए राजनीति की शरण लेते हैं, वे सब भाग खड़े होंगे।

जहां तक कार्यपालिका का प्रष्न है, देष के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर प्रदेशों के राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों का भी वार्षिक वित्तीय ब्यौरा देश के सामने होना चाहिए। इसी प्रकार केबिनेट सचिव से लेकर पंचायतों के चपरासी तक सभी सरकारी कर्मचारियों का ब्यौरा भी प्रतिवर्ष प्रकट किया जाना चाहिए। देश के सभी न्यायधीशों का वित्तीय ब्यौरा भी सार्वजनिक करने में किसी को कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? न्यायधीश अपने ब्यौरे सिर्फ मुख्य न्यायधीश के पास जमा करवाएं, यह काफी नहीं है। न्यायधीशों का वित्तीय जीवन तो सभी के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। शासन के इन तीन स्तंभों के अलावा चौथे स्तंभ खबरपालिका का भी संपूर्ण वित्तीय ब्यौरा लोक-परीक्षण के लिए उपलब्ध होना चाहिए। अखबारों और चैनलों के मालिकों ही नहीं, उनके समस्त निवेशकों , प्रबंधकों और पत्रकारों के वार्षिक वित्तीय ब्यौरे आदि सार्वजनिक होने लगें तो भारत के लोकतंत्र में शुद्धता की एक नई लहर उठेगी । न्यायपालिका और खबरपालिका अभी जितनी निर्भयता से काम कर रही हैं, उससे भी ज्यादा निर्भयता और निष्पक्षता उनके आचरण में अपने आप दिखाई पड़ने लगेगी।

चारों स्तंभों पर लागू वार्षिक वित्तीय ब्यौरे का यह कानून मुख्य पात्रों के अलावा उनके अत्यंत निकट रिश्तेदारों पर भी लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा गलत ब्यौरे भरनेवालों और तथ्यों को छिपानेवालों को कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि जैसे टैक्स चुरानेवाले व्यापारियों पर छापे डाले जाते हैं, वैसे ही नेताओं और अफसरों पर भी छापे मारे जाने चाहिए। व्यापारियों का पैसा अपना कमाया हुआ होता है जबकि नेताओं और अफसरों का पैसा रिश्वत और ब्लेकमेल का होता है। यही पैसा विदेषी बैकों में छिपाया जाता है। यही पैसा तस्करी, रिश्वत , आतंकवाद और चुनावी भ्रष्टाचार के काम आता है। चुनाव-खर्च को घटाए बिना राजनीति का शुद्धिकरण असंभव है। चुनाव अभियान की अवधि घटाने के साथ-साथ संसद और विधानसभा की सीटों की संख्या दुगुनी या तिगुनी क्यों नहीं कर दी जानी चाहिए ? यदि चुनाव-क्षेत्र छोटे होंगे तो खर्च भी कम होगा। दुनिया के कई छोटे-छोटे देशों की संसदों में भारत से भी ज्यादा सांसद हैं।

लोकपाल बिल तो दूर का ढोल है लेकिन सबके आचरण पर निगरानी रखनेवाली सीवीसी, सीबीआई और लोकपाल को न्यायपालिका की तरह लगभग स्वायत्त बना दिया जाए तो उसके परिणाम चमत्कारी होंगे। शासन के चारों स्तंभों को भ्रष्टाचार-मुक्त रखने के लिए कई अन्य कठोर प्रावधान भी किए जा सकते हैं लेकिन यदि भारत की जनता स्वयं को भ्रष्टाचार-मुक्त नहीं करेगी तो शासन कभी स्वच्छ नहीं होगा। जनता जैसी होगी, शासन भी उसे वैसा ही होगा। क्या भारत के लोग यह संकल्प करेंगे कि अपना कोई भी काम करवाने के लिए वे रिश्वत कभी नहीं देंगे ? थोड़ी परेशानी सहेंगे, थोड़ा नुकसान भरेंगे, थोड़ी लड़ाई लड़ेंगे लेकिन भ्रष्टाचार के आगे घुटने नहीं टेकेंगे ? अगर वे ऐसा संकल्प कर सकें तो फिर वे उस हद तक भी जा सकते है, जो गांधी ने बांधी है याने उस सरकार को टैक्स देने से मना कर दें जो भ्रष्टाचारियों से पैसा वसूल करने या विदेशी बैंकों से हमारा पैसा लाने में असमर्थ है। ऐसी जागरूक जनता भारत में ऐसा उपभोक्तावादी और तड़क-भड़कवाला समाज बनने ही नहीं देगी, जिसके मूल में प्रलोभन है और जो सारे भ्रष्टाचार की जड़ है। यह जरूरी है कि भ्रष्टाचार का भांडा फोड़ करनेवाले बहादुर लोगों की सुरक्षा और सम्मान का बीड़ा जनता खुद उठाए और भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध अहिंसक प्रतिकार की अलख जगाए।

(लेखक, स्वतंत्र राजनीतिक विचारक एवं वरिष्ट पत्रकार हैं)Post templates

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