सोमवार, 18 अप्रैल 2011

ऐसे मिटाएँ भ्रष्टाचार

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भारत की राजनीति में आज भ्रष्टाचार जितना बड़ा मुद्दा बन गया है, पहले कभी नहीं बना लेकिन अचंभा है कि किसी के पास उसका कोई ठोस इलाज़ दिखाई नहीं पड़ता। प्रधानमंत्री माफी मांग लेते हैं और विपक्षी नेता उन्हें तुरंत माफ कर देती हैं। विपक्ष संयुक्त संसदीय कमेटी बिठाने का आग्रह करता है और सत्ता-पक्ष बिहार की नायिका की तरह पहले नखरे करता है, संसद बंद हो जाती है और फिर वह खुद ढेर हो जाता है। दोनों के बीच अजीब-सी जुगलबंदी चल रही है। न्यायपालिका अगर चाबुक नहीं फटकारती तो सरकार और संसद क्या कर रही हैं, यह देश को पता ही नहीं चलता। दोनों आत्म-मुग्ध हैं कि उन्होंने संसदीय जॉंच कमेटी बिठा दी है।

यहॉं मूल प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका का हस्तक्षेप और जॉंच कमेटियाँ देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करवा सकेंगीं ? उनकी अपनी सीमाएं हैं। अदालतें सजा तो तभी दे सकती हैं, जबकि भ्रष्ट आचरण सिद्ध हो। सिद्ध कौन करेगा ? सरकारी वकील और सरकारी जॉंच एजेंसियॉं ? वे क्यों करेंगी, कैसे करेंगी ? सरकार अपना, अपने नेताओं का और अपने अफसरों का गला खुद क्यों काटेगी ? बोफोर्स घोटाले का क्या हुआ ? 60 करोड़ के घोटाले की जॉंच में ढाई सौ करोड़ खर्च हो गए। 25 साल बाद रो-धोकर सरकार ने सारे मामले पर ढक्कन दबा दिया। हसन अली न तो नेता है न अफसर ! उसके विरूद्ध अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई ? अदालतों की चीख-पुकार के बावजूद 79 हजार करोड़ के हर्जाने में से अभी तक उससे एक पाई भी वसूल नहीं हुई। आखिर-क्यों ? क्योंकि वह तो सिर्फ मुखौटा है। असली चेहरे तो कोई दूसरे ही हैं । ये चेहरे अपने मुखौटे कों नुचने कैसे देंगे ?

संसदीय कमेटियॉं और एजेंसियों की जांच तो वक्त काटने का बहाना है। जॉंच के नतीजे आने तक लोग सब कुछ भूल चुके होंगे। नेताओं को यह पता है। यदि वे सचमुच भ्र्रष्टाचार के विरूद्ध होते तो राष्ट्रकुल खेल और फोन-घोटाले की सारी राषि अब तक ब्याज समेत वसूल कर लेते। सारे अपराधियों और उनके सहायकों की चल-अचल संपत्ति जब्त कर लेते और ऐसा माहौल बना देते कि भावी अपराधियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाती। इसमें शक नहीं कि इस तरह का प्रकंपकारी कदम कोई साहसिक नेता ही उठा सकता है लेकिन ऐसे नेतृत्व के अभाव में कम से कम हमारी सरकार और हमारी संसद कुछ कम आक्रामक कदम तो उठा ही सकती है। ये कदम दूरगामी और बुनियादी होंगे।

सबसे पहला काम तो यह होना चाहिए कि हमारी शासन व्यवस्था के चारों स्तंभों का वित्तीय ब्यौरा नियमित रूप से देश के सामने पेश किया जाए। ये चार स्तंभ हैं विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका। ये चारों स्तंभ अत्यंत शक्तिशाली हैं। जहां शक्ति है, वहॉं भ्रष्टाचार है। विधानपालिका याने सिर्फ संसद नहीं, विधानसभाएं, विधान परिषदें, नगर-निगम नगरपालिकाएं और पंचायतें भी। इन सबके सदस्यों की चल-अचल संपत्तियों का ब्यौरा सिर्फ चुनाव के वक्त ही नहीं, हर साल सार्वजनिक किया जाना चाहिए। यह भी काफी नहीं है। समस्त राजनीतिक दलों के समस्त पदाधिकारियों राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर जिला कार्यकारिणी के सदस्यों तक का वार्षिक वित्तीय ब्यौरा जनता के सामने होना चाहिए। यह छोटा-सा कानूनी प्रावधान भारत की राजनीति की जबर्दस्त सफाई कर देगा। जो पैसा बनाने के लिए राजनीति की शरण लेते हैं, वे सब भाग खड़े होंगे।

जहां तक कार्यपालिका का प्रष्न है, देष के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर प्रदेशों के राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों का भी वार्षिक वित्तीय ब्यौरा देश के सामने होना चाहिए। इसी प्रकार केबिनेट सचिव से लेकर पंचायतों के चपरासी तक सभी सरकारी कर्मचारियों का ब्यौरा भी प्रतिवर्ष प्रकट किया जाना चाहिए। देश के सभी न्यायधीशों का वित्तीय ब्यौरा भी सार्वजनिक करने में किसी को कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? न्यायधीश अपने ब्यौरे सिर्फ मुख्य न्यायधीश के पास जमा करवाएं, यह काफी नहीं है। न्यायधीशों का वित्तीय जीवन तो सभी के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। शासन के इन तीन स्तंभों के अलावा चौथे स्तंभ खबरपालिका का भी संपूर्ण वित्तीय ब्यौरा लोक-परीक्षण के लिए उपलब्ध होना चाहिए। अखबारों और चैनलों के मालिकों ही नहीं, उनके समस्त निवेशकों , प्रबंधकों और पत्रकारों के वार्षिक वित्तीय ब्यौरे आदि सार्वजनिक होने लगें तो भारत के लोकतंत्र में शुद्धता की एक नई लहर उठेगी । न्यायपालिका और खबरपालिका अभी जितनी निर्भयता से काम कर रही हैं, उससे भी ज्यादा निर्भयता और निष्पक्षता उनके आचरण में अपने आप दिखाई पड़ने लगेगी।

चारों स्तंभों पर लागू वार्षिक वित्तीय ब्यौरे का यह कानून मुख्य पात्रों के अलावा उनके अत्यंत निकट रिश्तेदारों पर भी लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा गलत ब्यौरे भरनेवालों और तथ्यों को छिपानेवालों को कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि जैसे टैक्स चुरानेवाले व्यापारियों पर छापे डाले जाते हैं, वैसे ही नेताओं और अफसरों पर भी छापे मारे जाने चाहिए। व्यापारियों का पैसा अपना कमाया हुआ होता है जबकि नेताओं और अफसरों का पैसा रिश्वत और ब्लेकमेल का होता है। यही पैसा विदेषी बैकों में छिपाया जाता है। यही पैसा तस्करी, रिश्वत , आतंकवाद और चुनावी भ्रष्टाचार के काम आता है। चुनाव-खर्च को घटाए बिना राजनीति का शुद्धिकरण असंभव है। चुनाव अभियान की अवधि घटाने के साथ-साथ संसद और विधानसभा की सीटों की संख्या दुगुनी या तिगुनी क्यों नहीं कर दी जानी चाहिए ? यदि चुनाव-क्षेत्र छोटे होंगे तो खर्च भी कम होगा। दुनिया के कई छोटे-छोटे देशों की संसदों में भारत से भी ज्यादा सांसद हैं।

लोकपाल बिल तो दूर का ढोल है लेकिन सबके आचरण पर निगरानी रखनेवाली सीवीसी, सीबीआई और लोकपाल को न्यायपालिका की तरह लगभग स्वायत्त बना दिया जाए तो उसके परिणाम चमत्कारी होंगे। शासन के चारों स्तंभों को भ्रष्टाचार-मुक्त रखने के लिए कई अन्य कठोर प्रावधान भी किए जा सकते हैं लेकिन यदि भारत की जनता स्वयं को भ्रष्टाचार-मुक्त नहीं करेगी तो शासन कभी स्वच्छ नहीं होगा। जनता जैसी होगी, शासन भी उसे वैसा ही होगा। क्या भारत के लोग यह संकल्प करेंगे कि अपना कोई भी काम करवाने के लिए वे रिश्वत कभी नहीं देंगे ? थोड़ी परेशानी सहेंगे, थोड़ा नुकसान भरेंगे, थोड़ी लड़ाई लड़ेंगे लेकिन भ्रष्टाचार के आगे घुटने नहीं टेकेंगे ? अगर वे ऐसा संकल्प कर सकें तो फिर वे उस हद तक भी जा सकते है, जो गांधी ने बांधी है याने उस सरकार को टैक्स देने से मना कर दें जो भ्रष्टाचारियों से पैसा वसूल करने या विदेशी बैंकों से हमारा पैसा लाने में असमर्थ है। ऐसी जागरूक जनता भारत में ऐसा उपभोक्तावादी और तड़क-भड़कवाला समाज बनने ही नहीं देगी, जिसके मूल में प्रलोभन है और जो सारे भ्रष्टाचार की जड़ है। यह जरूरी है कि भ्रष्टाचार का भांडा फोड़ करनेवाले बहादुर लोगों की सुरक्षा और सम्मान का बीड़ा जनता खुद उठाए और भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध अहिंसक प्रतिकार की अलख जगाए।

(लेखक, स्वतंत्र राजनीतिक विचारक एवं वरिष्ट पत्रकार हैं)Post templates

भ्रष्टाचार कैंसर की तरह लाइलाज नहीं

-एन. आर. नारायणमूर्ति

एक विकसित देश के रूप में भारत के उदय में मैं भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी बाधा समझता हूं। अब तो देश के सर्वोच्च और अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखे जाने वाले संस्थान भी इसकी लपेट में आ चुके हैं। सन् 2001 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.पी. भरूचा ने आजिज आकर वक्तव्य दिया था कि न्यायालयों के 20 प्रतिशत न्यायाधीश भ्रष्ट हो चुके हैं। अब जब हमारी न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार की यह हालत है तो प्रशासन का क्या पूछना। प्रशासन में भ्रष्टाचार का फैलाव तो अत्यंत भयावह स्थिति में पहुंच चुका है। इस सन्दर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी का वक्तव्य सभी को याद होगा। उन्होंने कहा था कि गरीबी उन्मूलन परियोजनाओं को केन्द्र द्वारा दिए जाने वाले प्रत्येक सौ करौड़ रुपए में मात्र 15 करोड़ रुपए ही मूल परियोजना में खर्च हो पाते हैं। शेष राशि बीच के सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े भ्रष्ट लोग खा जाते हैं।

लेकिन क्या भ्रष्टाचार केवल हमारी राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था में ही व्याप्त है? मेरा अनुभव कहता है, नहीं। इनके बाहर जो हमारे व्यावसायिक समूह है, उनमें भी भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण हमने देखे हैं। हर्षद मेहता, केतन पारीख से जुड़े स्कैण्डल किसकी देन हैं? कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मानो भ्रष्टाचार हम भारतीयों के मन में एक स्वीकृत परिदृश्य बनकर गहरी पैठ कर चुका है। शायद ही जीवन का कोई क्षेत्र इसकी पकड़ से बाहर हो।

भ्रष्टाचार केवल नैतिकता पर प्रश्न नहीं है बल्कि यह भारत जैसे गरीब किन्तु विकासशील देश की आर्थिक उन्नति में सबसे बड़ी बाधा है। बहुत सारे अर्थशास्त्री मानते हैं कि भ्रष्टाचार की जड़ में हमारे राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी हैं। अधिकांश बड़ी-बड़ी परियोजनाएं इन्हीं लोगों के दिमाग की उपज होती हैं। जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के नाम पर बनने वाली परियोजनाओं में जबर्दस्त भ्रष्टाचार होता है। नकली दवाएं, विद्यालयों की जर्जर इमारतें, अयोग्य अध्यापक और स्तरहीन भोजन-व्यवस्था देकर आखिर किस तरह गरीबों का, इस देश का भला किया जा सकता है? शायद इसीलिए प्रख्यात अर्थशास्त्री विमल जालान का यह कहना उपयुक्त है कि भ्रष्टाचार पहले से ही गैर-बराबरी वाले समाज में असमानता को बढ़ाता है।

भ्रष्टाचार का प्रभाव हमारे उद्यमों पर भी होता ही है। मध्यम श्रेणी के, लघु श्रेणी के उद्योग जहां इससे प्रभावित होते हैं, वहीं बड़े औद्योगिक समूह भ्रष्टाचार के द्वारा बाजार में अपना एकाधिकार और वर्चस्व कायम करने की होड़ करते हैं।

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि भ्रष्टाचार जहां हमारी प्रगति, उत्पादकता को नुकसान पहुंचाता है, वहीं इससे निवेश भी हतोत्साहित होता है, आर्थिक हानि के साथ लोगों का व्यवस्था पर से विश्वास टूटता है। यदि हमारे देश में भ्रष्टाचार पर शुरू में ही लगाम लगाई जाती, तो सम्भवत: 80-90 के दशक में ही हमने 8 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर ली होती, जो आज 6.1 प्रतिशत तक ही पहुंच सकी है।

आज लोग निराश हैं, सोचते हैं भ्रष्टाचार अब खत्म नहीं हो सकता, पर मैं उनमें नहीं हूं। मुझे भारत के उज्ज्वल भविष्य में पूरी आस्था है। भ्रष्टाचार समाप्त करना है तो पहल उन लोगों से शुरू होनी चाहिए जो ऊंचे स्थानों पर बैठे हैं, जिन पर समाज ने, देश ने अपनी देखभाल का दायित्व सौंपा है। हमारे राजनेताओं, प्रशासकों और उद्यमियों को मिल-जुलकर इस मुसीबत से पार पाना है। सबसे पहले हमें प्रेरक, नि:स्वार्थ और साहसी नेतृत्व चाहिए। सच्चाई, पारदर्शिता और दायित्व निर्वहन के द्वारा नेतृत्व सरकार और समाज में आत्मविश्वास पैदा करता है। दुर्भाग्यवश, आज यह स्थिति नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम भ्रष्टाचारी को त्वरित ढंग से दण्ड देने की व्यवस्था करें। ऐसा वातावरण बने कि अभी भी ईमानदारी की कद्र है और ऐसा करने के लिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उदाहरण चाहिए। भ्रष्टाचार में आरोपित व्यक्ति, चाहे कोई भी क्यों न हो, उसे किसी दायित्व पर तब तक नहीं रखा जाना चाहिए जब तक कि वह खुद को निर्दोष साबित न कर ले। त्वरित और कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिए। यदि ऊंचे पदों पर बैठे गलत तत्वों पर कारवाई हो तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को एक संदेश दे सकेंगे। पर आज तो वातावरण ऐसा है कि भ्रष्टाचार को वैश्विक परिदृश्य का अंग बताकर इसे हमारे सामाजिक जीवन की अनिवार्यता सिद्ध किया जा रहा है। वस्तुत: हमारे राजनीतिक वर्ग और प्रशासनिक वर्ग के विरुद्ध जब भ्रष्टाचार के मामले में शिथिलता बरती जाती है, तो स्वभाविक ही समाज में संदेश चला जाता है कि ऊंचे बनने के लिए भ्रष्ट तरीके अपनाने मे कोई हर्ज नहीं है।

हमारे प्रशासनिक अधिकारी बड़ी संख्या में ईमानदार रहते हैं, लेकिन धीरे-धीरे भ्रष्टाचार के मकड़जाल में उलझ जाते हैं। कैसे उलझते हैं, इससे संबंधित एक घटना मुझे याद है। सन् 1980 के दशक के मध्य में एक बार मैं दिल्ली आया हुआ था। एक शाम को होटल अशोक के यात्री निवास में डिनर पर मेरी मुलाकात मेरे एक मित्र से हुई। केन्द्र सरकार के मंत्रालयों में उसकी गिनती एक ईमानदार और स्वच्छ चरित्र वाले आफिसर के रूप में थी। भोजन के समय मैंने उसे कुछ चिंतित पाया। बातचीत में उसने अपनी तकलीफ मुझे बताई। उसने बताया कि जीवन में पहली बार आज उसने एक केस में रिश्वत ली है और तब से ही एक प्रकार की बेचैनी मुझे परेशान किए है। मैंने कहा कि रिश्वत लेना तो गलत है, इसमें कोई संशय नहीं है। और तब उसने मुझे जो कहा, सुनकर मुझे धक्का लगा। उसने कहा कि मेरे विचारों का एक हिस्सा इस कार्य को उचित ठहराता है क्योंकि मैंने अपने मंत्री को रिश्वत लेते हुए देखा है। मैं अपने उस मित्र की मन:स्थिति समझ सकता था। मुझे वह कारण समझ में आ गया कि क्यों हमारे अच्छे-भले, उत्साही प्रशासनिक अधिकारी धीरे-धीरे इस मकड़जाल में उलझते जाते हैं। लेकिन मैं यह भी कहूंगा कि जिन्हें देश-समाज को दिशा देनी है, नेतृत्व देना है, वे इस प्रकार की उलझनों में नहीं फंसते। अनैतिकता को आखिर किस तर्क से नैतिकता का जामा पहनाया जा सकता है?

सिंगापुर में सन् 80 के दशक में एक घटना घटित हुई थी। भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे एक मंत्री के विरुद्ध जांच में आरोप को प्रथम दृष्टया सही पाया गया। उस मंत्री ने प्रधानमंत्री से स्वयं को निर्दोष बताते हुए हस्तक्षेप की गुहार लगाई। प्रधानमंत्री ने उस मंत्री को स्पष्ट कहा कि आपका काम खत्म हो चुका है। इस मामले में कड़ी कार्रवाई होगी और अब आगे चुनाव लड़ने का ख्वाब देखना भी छोड़ दीजिए। अपने नेता की बात सुनकर वह मंत्री घर चला गया। अगले दिन समाचार पत्रों द्वारा पूरे सिंगापुर को खबर लगी कि उस मंत्री ने स्वयं ही सिर पर गोली मारकर आत्महत्या कर ली। तो यह है वह संदेश, जिससे भ्रष्टाचार रुकता है, रुक सकता है। भ्रष्टाचारी व्यक्ति को कदापि कहीं से भी संरक्षण नहीं मिलना चाहिए।

हमारे कार्यों में पारदर्शिता झलकनी चाहिए। भ्रष्टाचार समाप्त करने का एक तरीका यह भी है कि हम अपने चुनाव में खर्च होने वाले धन पर भी नियंत्रण करें। इस बारे में हम जर्मनी का उदाहरण ले सकते है। वहां प्रत्येक प्रत्याशी पर खर्च होने वाले धन के बारे में जनता को जानकारी दी जाती है कि इतना पैसा प्रत्याशी ने कहां से जुटाया। हमें इसी के साथ ऐसा तंत्र भी विकसित करना पड़ेगा जो धन के अतिगमन पर न केवल नजर रखे वरन् जरूरत पड़ने पर तत्काल कार्रवाई भी कर सके। इस सन्दर्भ में चुनाव आयोग को और शक्तिसम्पन्न किया जाना चाहिए। प्रत्येक प्रत्याशी के अनाधिकृत और भ्रष्ट कार्यों को व्यापक रूप में प्रकाशित कर जनता को उससे अवगत कराना आवश्यक है। इस संदर्भ में त्रिलोचन शास्त्री और उनके सहयोगियों के चलते उठाए गए कदम का पूरे देश में अच्छा संदेश गया है।

प्रशासनिक भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए ऐसे बहुत से कार्यों को, उपायों को तलाशने की जरूरत है, जिनमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है। जैसे जब सरकार ने कम्प्यूटरों का आयात करने के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता समाप्त कर दी, इलेक्ट्रॉनिक विभाग में फैला भष्टाचार एक ही झटके में समाप्त हो गया। सरकार की प्रवृत्ति कुछ ऐसी हो गई है कि वह जितनी नई योजनाएं बनाती है, प्रत्येक में सरकारी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए व्यवसायियों को भारी कशमकश का सामना करना पड़ता है। हमें प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार की छोटी से छोटी संभावना का ध्यान रखकर उसे मिटाने के उपाय करने होंगे।

भ्रष्टाचार को दूर करने का एक बड़ा उपाय हमें ई-गवर्नेंस के रूप में मिल गया है। ई-गवर्नेंस ने निर्णय प्रक्रिया और निर्णय के क्रियान्वयन को भी अत्यंत आसान कर दिया है। हमें अपनी निर्णय-प्रक्रिया में अधिकाधिक पारदर्शिता रखनी होगी और इस कार्य में यदि हम साफ्टवेयर का इस्तेमाल सहज क्रियाशीलता के साथ प्रत्येक महत्वपूर्ण निर्णय-प्रक्रिया में करते हैं तो मैं मानता हूं कि इससे सरकारी कार्यों और निर्णयों में पर्याप्त चुस्ती आएगी और भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं भी समाप्त हो जाएंगी। ई-गवर्नेंस न केवल सेवाओं को सहज-सुलभ बनाता है बल्कि इससे यह पता लगाना भी आसान है कि कहां पर निर्णय या उसके क्रियान्वयन में देरी हो रही है।

हैदराबाद के ई-सेवा केन्द्रों ने साधारण जनता की कठिनाइयों को जिस तरह दूर किया है, वह इस सन्दर्भ में एक प्रेरक उदाहरण है। सरकारी कार्यों से इसके चलते भ्रष्टाचार भी समाप्त हुआ है। सरकार की उपयोगी सेवाओं, विविध प्रमाण पत्रों, सरकारी अभिलेखों, अनुपत्रों, और तो और प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ.आई.आर.) के लिए देय शुल्क का भुगतान भी अब इसी माध्यम से होने लगा है।

आज हमें उत्तरदायी प्रशासन चाहिए। सरकारी कार्यों में गलती, लापरवाही और भ्रष्टाचार करने वालों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए। दुर्भाग्यवश हमारे देश के अधिकांश लोकायुक्त असफल हो चुके हैं, क्योंकि एक तो उन्हें सरकार के अन्तर्गत कार्य करना पड़ता है, दूसरे उनके कार्मिकों की गुणवत्ता भी बेहतर नहीं है। हमें अब एक अलग ज्यूरी खड़ी करनी होगी जो न्यायिक शक्तियों के साथ हमारी न्याय व्यवस्था के अंग के रूप में सिर्फ भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए त्वरित रूप में काम करे। इन्हें प्रशासकों और सरकारों के अन्तर्गत न रखकर केवल संसद के प्रति उत्तरदायी बनाना होगा। साथ ही, ज्यूरी द्वारा निर्णीत मामलों में उच्च स्तर पर सुनवाई का अवसर भी निषिद्ध करना होगा।

मैं कहना चाहूंगा कि केन्द्रीय जांच ब्यूरो भी इस संदर्भ में अपने हाथ में लिए गए मामलों मे जिस तत्परता से कार्रवाई करनी चाहिए, उसमें सफल नहीं हुआ है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो के वर्तमान ढांचे में परिवर्तन कर उसमें तेज-तर्रार अफसरों की नियुक्ति की जानी चाहिए। केन्द्रीय जांच ब्यूरो को किसी केस के बारे में प्राथमिक तथ्यों का अन्वेषण बारीकी से करके उस पर आगे कदम बढ़ाना चाहिए।

देश के औद्योगिक जगत, उद्यमी समूहों पर भी भ्रष्टाचार खत्म करने का दायित्व है। इन्फोसिस कम्पनी में हमने मूल्यों के क्षरण को रोकने के लिए इसी सन्दर्भ में एक कदम उठाया था। हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी ने जब हमारी मूल्य-परंपरा के विपरीत काम किया तो हमें निर्णय लेने में मात्र कुछ घण्टे लगे और उनका त्यागपत्र ले लिया गया। आज देश को दृढ़ निश्चयी और सुयोग्य नेतृत्व जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चाहिए। ऐसे लोग हैं भी, बस जनता में विश्वास और कुछ करने का वातावरण बन जाए, तो हम सब कुछ ठीक कर लेंगे।

मजबूरी का मौन

लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि उन्होंने छह माह के लिए मौन व्रत रखा हुआहै. उनके विरोधी कहते हैं कि उनके पास बोलने के लिए कुछ है ही नहीं. लालू के विभिन्न क्रियाकलापों और उनसे एवं अन्य लोगों से बातचीत के आधार पर निराला का आकलन

12 फरवरी को सुबह करीब सवा आठ बजे मैं अपने सहयोगी साथी इर्शादुल हक और विकास के साथ पटना के राबड़ी देवी वाले सरकारी आवास पर पहुंचता हूं. अहाते में कुल जमा चार-पांच लोगों की मंडली जमी है. लुंगी लपेटे, आधी बांह का स्वेटर पहन कुर्सी पर बैठे लालू प्रसाद यादव अखबारों के ढेर को निपटाकर उस पर टीका-टिप्पणी करने में मशगूल हैं. मंडली में कोई नामचीन चेहरा नहीं. राजनीतिक भी नहीं. लगभग डेढ़ घंटे की अवधि तक हम भी उसी मंडली का हिस्सा बनते हैं. उस अवधि में कम से कम चार बार लालू प्रसाद अपने अरदली को भोजपुरी मिश्रित हिंदी में अलग-अलग लहजे में कहते हैं- चाय लाओ रे सबके लिए...! चयवा कहां अटक गया रे...!! चयवा काहे नहीं ला रहा रे...!!! उनका आदेश पहले तो अनुरोध में बदलता है और फिर एक रट भर बनकर रह जाता है. आखिर में जब चला-चली की बेला आती है तो अरदली सिर्फ एक कप नींबू वाली चाय लिए हाजिर होता है.

यह थोड़ा अटपटा लगता है. सुबह-सुबह का समय, मौसम में ठंडेपन का एहसास भी है तो इस लिहाज से चाय का इंतजार वहां मौजूद लालू प्रसाद के कुछ खास मेहमान भी कर रहे थे. खास इसलिए कि लालू उन सबसे जिस तरह भोजपुरी में बोल-बतिया रहे थे - का रे, का हो और का सर - उससे साफ लग रहा था कि ये लालू से मिलने आने वाले निहायत निजी-से लोग हैं. सत्ता-शासन से बेदखल नेता लालू प्रसाद यादव से मिलने आने वालों में से नहीं. लेकिन उस रोज एक कप नींबू की चाय सामने आते ही लालू प्रसाद बगैर किसी परवाह के अकेले ही चाय सुड़कने में मगन हो जाते हैं. मौके-बेमौके लालू प्रसाद के तीखे प्रहार से तिलमिला जाने वाले उनके घोर विरोधी और आलोचक भी जानते-मानते हैं कि मेहमाननवाजी और खाने-खिलाने के मामले में वे हमेशा ही बहुत दिलवाले रहे हैं. अपने उफान के दिनों में भी कोई निजी वक्त में उनके पास चला जाए तो वे दूध-रोटी, भात-दाल-चोखा साथ में ही बैठकर खाते थे. अगर घर से मिठाई नहीं मंगाते तो वहीं बगान से ही पपीता वगैरह कुछ भी तुड़वाते और खिलाते. तालाब से मछली निकलवाते और बनवाकर सबके साथ खाते. मगर उस सुबह एक कप चाय आते ही लालू का यह भूल जाना कि उन्होंने घंटे भर में कम से कम तीन-चार बार अपने अरदली को सबके लिए चाय लाने को कहा था, सिर्फ अपने लिए नहीं. तो क्या अब लालू इतने लापरवाह-बेपरवाह रहने लगे हैं!

अकेले लालू को 80 लाख मतदाताओं ने वोट दिया. हमको जो वोट मिला उसमें पासवान का वोट उतना कहां है, जो है सो लालू यादव का है

शायद नहीं और शायद हां भी. नहीं, इसलिए कि आज भी गांव-जवार के पुराने मित्रों से लेकर नये-नवेले परिचितों तक को एक निगाह में ही पहचानते हैं वे, भरी भीड़ में भी नाम से संबोधित करके बुलाते हैं. हां की गुंजाइश इसलिए कि उसी रोज चाय मंगाने के पहले उन्होंने अपने अरदली से खैनी भी मांगी थी. खैनी मांगते ही उनकी हथेली पर बनी-बनाई खैनी रख दी गई. हाथ में खैनी लेने के दौरान लालू प्रसाद बातचीत में मशगूल हो जाते हैं. खैनी हथेली से धीरे-धीरे गिरती रहती है और वे फिर भी रट लगाते रहते हैं- खैनिया कहां है रे, खैनिया नहीं बनाया रे, खैनिया दो ना रे... अरदली साहस नहीं जुटा पाता कि कह दे कि आपके हाथे में तो है खैनी. लालू का ध्यान खुद उस पर जाता है, हंसते हुए कहते हैं- ओ, दे दिया है, फिर होठ तले दबाते हैं. और पांच मिनट के अंदर ही अपने पुराने अंदाज में उंगली से होठ को हिडोरते हुए खैनी निकालते हैं और कुरसी की दायीं ओर रखे पीकदान की ओर हाथ फैला देते हैं. अरदली काफी देर तक खैनी लगी उंगली पर पानी की पतली धार गिराता रहता है, तब तक, जब तक कि लालू खुद हाथ हटा नहीं लेते. लालू प्रसाद जब खैनी के बहाने अपनी बेपरवाही पर हंस रहे होते हैं तो ऐसा लगता है कि समूह में भी रहकर लालू अकेले किसी दुनिया में खोए रहते हैं अब! या एक साथ जेहन में कई बातें टकराते रहने की वजह से अब ज्यादा ही बेपरवाह-लापरवाह से रहते हैं. अरदली कहता है, जान-बूझकर ऐसा करते हैं साहब, यही तो उनकी खास पहचान वाली अदा है!

हो सकता है लालू प्रसाद अपनी खास पहचान वाली अदा को बनाए रखने के लिए जान-बूझकर ही ऐसा करते हों, लेकिन चुनाव के पहले से लेकर हार के बाद भी भटकाव, द्वंद्व और दुविधा की दुनिया से वे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, यह कई बातों से जाहिर हो जाता है. 12 फरवरी को जब वे प्रवचन देने की तर्ज पर अपनी बात बता रहे होते हैं तो हर एक मिनट पर बात बदलते रहते हैं. देहाती मुहावरे में कहें तो कभी हंसुआ के बियाह में खुरपी का गीत गाते हैं, तो कभी आम की बात करते-करते ईमली का स्वाद बताने लगते हैं.

बात मीडिया के रवैये से शुरू करते हैं, नीतीश सरकार की कार्यप्रणाली पर आते हैं, गांधीजी, जेपी के बहाने अंग्रेजों के राज को याद करते हैं. इस बीच बार-बार अपने शासन के पुराने दिनों की भी यादें ताजा करते रहते हैं. अपने दिनों को याद करते हुए गर्व और संतोष का भाव बार-बार लाने की कोशिश करते हैं लेकिन वह कुछ पलों से ज्यादा नहीं टिक पाता. मंडली में ही मौजूद एक सज्जन बातचीत को बीच में काटते हुए लालू प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए कहते हैं, सर, बिस्कोमान में चुनाव हो रहा है, सब कहता है कि हर जगह से ललटेन को उखाड़ देना है. लालू पल भर में ही गुस्से में आ जाते हैं, अयें, का कह रहा है सब जगह से ललटेन को उखाड़ देगा. एतना आसान है का रे... लालू कुछ और बोलना चाह रहे होते हैं लेकिन पल भर में उभरा गुस्सा पल भर में ही शांत हो जाता है और फिर मुस्कुराते हुए कहते हैं- अरे ऐसा कुछ नहीं. लड़ो चुनाव बिस्कोमान में. हम हैं न. अभी बिस्कोमान की बात खत्म ही होती है तो एक जूनियर पुलिस अधिकारी वर्दी में वहां पहुंचते हैं. लालू प्रसाद की नजर उधर जाती है- का है हो सिपाही जी! लालू प्रसाद जानते हैं कि वे सिपाही नहीं, उनके बैच-स्टार बता रहे होते हैं कि कोई अधिकारी हैं. लेकिन लालू प्रसाद दो-तीन बार सिपाही जी-सिपाही जी का संबोधन देते हैं. वे पुलिस अधिकारी गिड़गिड़ाने के अंदाज में बोलते हैं, बक्सर से आए हैं सर, आपसे मिलने, आपका दर्शन करने. लालू उससे बात भी कर रहे होते हैं और यह भी कह रहे होते हैं कि अभी बात नहीं करेंगे. जाओ, बाद में आना. पुलिसवाले के साइड में जाने पर फिर गर्व का भाव आता है चेहरे पर, सब एही जगह पहुंचता है. सबको एहिजे पहुंचना होगा.

एक समय में अलसुबह से देर रात तक लोगों, प्रशंसकों, नेताओं और अधिकारियों का इस कदर मजमा जमता था कि सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिलती थी लालू प्रसाद को. मगर आज जब वे एक जूनियर पुलिस अधिकारी की परिक्रमा का भी अपनी गौरव गाथा के रूप में बखान करते हैं तो एक अजीब-सी विडंबना का एहसास होता है. लालू प्रसाद खुद तो यह कहते हैं कि हमने छह माह तक चुप रहने का संकल्प लिया है, इसलिए अभी कुछ नहीं बोल रहे हैं, सरकार को सहयोग कर रहे हैं. मगर लालू और लालू की राजनीति को जानने वाले जानते हैं कि चुप रहना उनकी मजबूरी है. नीतीश कुमार उन्हीं की बिछाई बिसात पर लगातार उन्हें शह और मात दिए जा रहे हैं. लालू प्रसाद की पहचान सोशल इंजीनियरिंग के मसीहा के रूप में थी, नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग को एक नया विस्तार दे डाला. लालू प्रसाद ने चुनाव के पहले सवर्णों को आरक्षण देने का बुलबुला छोड़ा, नीतीश ने सवर्ण आयोग गठित कर दिया. लालू प्रसाद पिछड़ों और दलितों की बात करते थे, नीतीश अतिपिछड़ों और महादलितों के समीकरण से उन्हें मात दे रहे हैं. गवर्नेंस और डेवलपमेंट की बात पर लालू प्रसाद चाहकर भी आक्रामक तेवर नहीं दिखा पाते. बिहार के सौ साल पर बिहार गीत निर्माण से लेकर तमाम तरह के आयोजनों की तैयारियां सरकारी स्तर पर चल रही हैं, इस पर लालू प्रसाद कुछ बोलेंगे तो सवाल होगा कि आपने तो कभी बिहार स्थापना दिवस मनाने की कोशिश की ही नहीं. इसी तरह बिहारी उपराष्ट्रीयता और बिहारी अस्मिता को लेकर जो नया उफान दिख रहा है उस पर भी लालू प्रसाद को मन मसोसकर चुप रहना पड़ रहा है. यह बात अलग है कि बिहारी उपराष्ट्रीयता की एक बड़ी पहचान खुद लालू प्रसाद और उनकी राजनीति रही है. लेकिन फिलहाल नीतीश कुमार की इन सधी हुए चालों से लालू प्रसाद चाहकर भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं आ पा रहे हैं. और जिन मसलों पर लालू प्रसाद नीतीश को घेर सकते हैं उन विषयों पर रणनीति बनाने वाले रणनीतिकार लालू के पाले में नहीं बचे हैं.

उहो अब बहुते स्टाइल मारकर लालू यादव की नकल करने की कोशिश करते हैं लेकिन स्टाइल मारने से कोई लालू यादव हो जाएगा!

तो क्या अगले कुछ सालों तक, जब तक लोकसभा या विधानसभा चुनाव की बारी न आ जाए, लालू प्रसाद ऐसे ही चंद लोगों की मंडली में बैठ टीका-टिप्पणी करते रहेंगे. यह सवाल 12 फरवरी को उनकी मंडली में शामिल होते हुए बार-बार जेहन में उठ रहा था. हालिया दो दशक में ऐसा दौर शायद ही कभी लालू प्रसाद ने देखा हो. कभी खुद सीएम हुआ करते थे, बाद में पत्नी सीएम बन गईं, दोनों साले सुभाष और साधु बिहार के राजनीतिक गलियारे के नक्षत्र बन गए थे. अब साधु-सुभाष अपनी-अपनी राह पकड़कर राजनीति में हाशिये पर हैं. पत्नी राबड़ी देवी खुद दो-दो जगहों से चुनाव हार चुकी हैं. लालू प्रसाद को खुद उनके राजनीतिक दोस्त से पक्के दुश्मन बने शरद यादव और रंजन यादव चुनावी जंग में पटखनी दे चुके हैं. बेटे को भी पिछले चुनाव में लालू ने लॉन्च किया, लेकिन वह भी अब चुनाव के बाद झारखंड प्रीमियर लीग खेलने की तैयारी में है. हालांकि विगत वर्षों तक, जब खुद लालू प्रसाद रेल मंत्री रहे, उनका जलवा बरकरार रहा लेकिन जिस जगह से कभी बिहार की सत्ता-शासन की बागडोर नियंत्रित होती थी वहां से अब ज्ञान-दर्शन के स्वर सुनाई पड़ते हैं.

लालू प्रसाद से जब हम विदा लेने को होते हैं तो वे आखिर में किसी सचेत अभिभावक की तरह समलैंगिकता और प्यार-मोहब्बत के प्रसंग पर बात करते हुए समाज को दुत्कारते हैं. लालू प्रसाद किसी प्रवचनकर्ता की मुद्रा में फिर आते हैं और चिंतित भाव से कहते हैं, बताइए भला. अब लेस्बियनिज्म को मान्यता मिल रहा है. जो जानवर नहीं करता, वह इंसान करेगा. छीः,छीः,छीः... कोई विरोध भी नहीं कर रहा. समाज को चाहिए कि ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध करे नहीं तो सब बर्बाद हो जायेगा.' लालू प्रसाद सिर्फ राबड़ी देवी वाले आवास की चारदीवारी में ही ज्ञान-दर्शन की बातें और मौके-बेमौके एक गंभीर और बुजुर्ग अभिभावक के जैसी अपनी राय नहीं रख रहे हैं. कुछ रोज पहले वे भागलपुर पहुंचे तो वहां भी उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता को जमकर कोसा और कहा कि पाश्चात्य सभ्यता भारतीय युवाओं को बर्बाद कर रही है. फरवरी में ही वे बनारस में एक विवाह समारोह में पहुंचे तो पत्रकारों ने उन्हें बढ़ती महंगाई के सवाल पर घेरा. लालू प्रसाद ने व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया, अच्छा ही है, महंगाई बढ़ेगी तो लोग पैदल ज्यादा चलेगें. ज्यादा पैदल चलेगें तो डायबिटिज का खतरा कम होगा.

लेरसियन (लेस्बियन) को मान्यता दिया गया है. जो जानवर के समाज में भी एलाउ नहीं है, उ इंसान के समाज में एलाउ किया जा रहा है

विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद खुद के कहे अनुसार तो वे मौन व्रत्त में हैं लेकिन जब भी मौका मिलता है, खूब बोलने की कोशिश करते हैं. बस बोल लेने के बाद यह जरूर दुहरा देते हैं कि हम अभी चुप हैं, चुप रहेंगे, मौनव्रत्त में चल रहे हैं और छह महीने बाद बोलेंगे तो सब कुछ बोलेंगे. खुद के खुल के बोलने के लिए लालू प्रसाद द्वारा निर्धारित छह में से तीन महीने निकल चुके हैं. इन महीनों में लालू प्रसाद पांच-छह बार अपनी बात बोलने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन कोई ऐसी बात नहीं जिस पर सरकार को या सरकारी मकहमे को बचाव की मुद्रा में आना पड़े. अब उनकी बातें अखबारों में भी खबरों के ढेर में कहां दबकर रह जा रही हैं, पता नहीं चल पाता.

21 फरवरी को पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में भी कुछ ऐसा ही हुआ. लालू यादव जिंदाबाद की नारेबाजी जारी थी. रविदास चेतना मंच द्वारा संत रविदास जयंती का आयोजन था. आयोजन का सबसे बड़ा आकर्षण यह बताया गया था कि इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए लालू यादव दिल्ली से पटना आ रहे हैं. सिर्फ इसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आ रहे हैं, ऐसा बार-बार कहा जा रहा था. लालू प्रसाद आते हैं. आते ही सबसे पहले सामने से मीडियाकर्मियों को कैमरा वगैरह हटाने के लिए कहते हैं. संचालक शिवराम दूसरी घोषणा करने लगते हैं. सामने जो भी भाई-बहिन बैठे हुए हैं, सीट खाली कर दें, वहां मीडिया के लोग बैठेंगे. लालू बीच में ही हत्थे से उखड़ जाते हैं, एकदम से बुड़बके हो का जी. हम कैमरवा सब को हटाने के लिए कह रहे हैं तो तू दोसरे गीत गा रहे हो... अपने दल के नेता रघुवंश बाबू के बोल लेने के बाद लालू बोलना शुरू करते हैं. अपनी जगह से बैठे-बैठे ही. खूब बोलते हैं लेकिन उनके बोले-कहे में संत रविदास का नाम शायद ही कभी आया हो. सरकार के खिलाफ बोलते रहते हैं, शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा... का किस्सा सुनाते हैं. तीर और कमल के घालमेल से बचकर रहने की नसीहत देते हैं. पटना में सड़क किनारे से हटाए जा रहे गरीबों-दुकानदारों के पक्ष में बोलते हैं, साइकिल बांट योजना की तुलना इससे करते हैं. गरीबों को आटा का पैकेट सीधे दिए जाने पर मजाक करते हुए कहते हैं कि सड़लका गेहूं देगा, सावधान रहियो. जनगणना में जरूर से जरूर नाम दर्ज करवाने की अपील करते हैं. यह भी कहते हैं कि ई जो पटना में बड़का-बड़का बिल्डिंग बन रहा है, उ सब पईसा कहां से आ रहा है, इस पर हिसाब मांगेंगे. इतना कुछ बोलने के बाद लालू प्रसाद अंत में कहते हैं, 'अभी हम मौन व्रत्त में हैं इसलिए कुछ नहीं बोल रहे हैं, छह महीना कुछ नहीं बोलेंगे. बीच-बीच में बोल के टैबलेट दे रहे हैं, बाद में तो सुई भोंकेगें, उ करना भी जानता है लालू जादव लेकिन अभी चुप है.' यह किस किस्म का मौन व्रत्त है, लालू प्रसाद खुद नहीं समझ पा रहे, दूसरों को तो क्या खुद को ही नहीं समझा पा रहे हैं.

मौनव्रत के आधे समय यानी तीन माह गुजरने के क्रम में लालू प्रसाद कुछेक बार मीडिया में दिखे हैं. नये साल के आरंभ में वे जगन्नाथ पुरी मंदिर गए थे. सो खबरिया दुनिया जहां नीतीश, सुशील मोदी और दूसरे नेताओं के शुभकामना संदेशों से पटी थी वहीं लालू का जिक्र तक नहीं था. बीच में एक दफा जनगणना करने वाले उनके घर पहुंचे तो लालू प्रसाद ने थोड़ा जनगणना पर भी व्याख्यान दे डाला. बिहार में जब उनकी पार्टी के भविष्य का आकलन हो रहा था तो लालू प्रसाद अंडमान-निकोबार में कार्यालय खोलने गए, चटखार अंदाज में अंग्रजी मीडिया में लालू दो-चार पंक्तियां बोलते दिखे. फिर महंगाई पर उनका बयान आया कि अब तो घी से भी महंगा हो जाएगा पेट्रोल. पूर्णिया विधायक नवल किशोर केशरी हत्याकांड में सीबीआई जांच की मांग की गई तो उनके नाम कर चर्चा हुई. 26 जनवरी को अपने यहां नेहरू टोपी लगाकर झंडा फहराया, सभी मीडियावालों को खबर पहुंचाई गई लेकिन कुछेक ने ही उन्हें जगह दी. कर्पूरी ठाकुर के नाम पर हुए समारोह में भाजपा पर निशाना कसा तो थोड़ी-बहुत चर्चा हुई और जब भारतीय जनता युवा मोर्चा की ओर से कश्मीर में झंडा फहराने की तैयारी हो रही थी, कारवां बिहार से गुजर रहा था तो लालू प्रसाद की आवाज सुनाई पड़ी थी कि इस सरकार में भाजपा और संघियों का मन बढ़ रहा है, कांग्रेस मर गई है. किसी न किसी बात पर रोज मीडिया में छाए रहने वाले लालू प्रसाद तीन माह में पांच-छह बार दिखायी-सुनायी पड़े. हाशिये से हस्तक्षेप की कवायद कर रहे हैं. लालू प्रसाद के सिपहसालार कहते हैं कि साहेब मीडियावालों से दूरी बनाकर रखे हुए हैं. मीडिया के लोग कहते हैं कि अब उनमें क्या रक्खा है, जो...

चर्चित पत्रकार और लेखक हेमंत, जिन्होंने बतकही बिहार की में लालू युग का बहुत ही शिद्दत से डॉक्यूमेंटेशन किया है, पुराने दिनों के कुछ किस्से सुनाते हैं. वे बताते हैं कि लालू प्रसाद अभी ताजा-ताजा मुख्यमंत्री बने थे. बेली रोड से होते हुए उनकी गाड़ी गुजर रही थी. रास्ते में उन्होंने जबर्दस्ती हेमंत को भी गाड़ी में बैठा लिया और लेकर दानापुर चले गए. दानापुर क्यों जा रहे हैं, पूछने पर पता चला कि वहां शौचालय का उद्घाटन करेंगे लेकिन शिक्षा पर बोलेंगे. लालू प्रसाद ने वही किया भी. गांव के लोगों के बीच जाकर, उनके ही मुहावरों में घंटों बोलते रहे. हगना-मूतना जैसे गंवई शब्द राज्य के मुखिया के जुबान से सुनकर गंवई भींड़ खिंचती चली आई. शौचालय और शिक्षा के रिश्ते को जोड़ लालू प्रसाद वहां से विदा हो गए और भीड़ लालू पर फिदा हो गई, उस इलाके के लोकमानस में यह लालुई शैली बस गई. फिर एक बार वे सासाराम में गए. तकरीबन एक लाख की भीड़ थी. लालू प्रसाद मंच पर पहुंचे. बोलने की बजाय उन्होंने पूछा कि इस भीड़ में कोई है जो ताड़ के पेड़ से ताड़ी उतारना जानता हो. कई हाथ एक साथ उठे. लालू ने सबको मंच पर आने को कहा. ताड़ी उतारने वाले मंच के पीछे से ऊपर आने के लिए बढ़े. लालू ने कहा कि सीढ़ी से क्या आना है, सामने से तड़पकर चढ़ो मंच पर, यह लालू का मंच है. देखते ही देखते कई नौजवान तड़पकर मंच पर चढ़ गए. लालू ने सबसे भाषण दिलवाया और ताड़ी उतारने से पीठ पर पड़े दागों को दिखाते हुए कहा कि इसी दाग को मिटाएगा लालू जादव. आज से ताड़ी का टैक्स माफ. गुजरे जमाने के कई किस्से जब हेमंत सुना रहे होते हैं तो यह पुराने जमाने के किसी राजा के किस्सों सरीखा लग रहा होता है. नयी पीढ़ी लालू प्रसाद के उन किस्सों से नावाकिफ है. अब लालू प्रसाद के अनुसार लालू जादव मौनव्रत्त में है, कभी उनके आगे-पीछे रहनेवाला मीडिया उनसे बेरुखी अपना रहा है. 2005 के चुनाव के बाद भी लालू हारे थे, लेकिन उम्मीदों के सहारे बोलते रहते थे. केंद्र में रेलमंत्री थे तो भी कुछ जलवा रहा. लालू प्रसाद के खास माने जाने वाले उनके दल के एक सांसद कहते हैं, बिहारी राजनीति का लालुई अंदाज अब इतिहास बनने की राह पर है. राजनीति की लालू शैली या लालू की राजनीतिक शैली उसी राह पर है. क्या सब इतिहास हो गया? लेखक प्रसन्न चौधरी कहते हैं, समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलाव ऐसे ही होता है. अब किसी नये नाम के उभार का इंतजार कीजिए.

हालांकि कुछ लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अपने राजनीतिक जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके लालू जल्दी ही इससे उबरेंगे और आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बचे अच्छे-खासे समय का इस्तेमाल अपनी धार को मजबूत करने, संगठन को सक्रिय करने और बिहार में नीतीश सरकार को सवालों के घेरे में लाकर विपक्ष को खाद-पानी देने में करेंगे. लेकिन नीतीश सरकार के लगभग तीन माह हो जाने के बाद अब तक लालू प्रसाद राजनीतिक मोर्चे पर उस ढर्रे पर चलते हुए नहीं दिख रहे. शायद अभी वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि करना क्या है. किस राह को पकड़ना है? इसलिए जब संसद सत्र में भाग लेने गए तो कांग्रेस के पक्ष में खड़े होते नजर आए जबकि कुछ दिनों पहले उन्होंने यह कहा था कि कांग्रेस मर गई है. उनके दो विश्वस्त क्षेत्रीय साथियों में से एक जगतानंद सिंह हैं, जिनके बेटे भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर अपना भाग्य आजमा चुके हैं. दूसरे रघुवंश प्रसाद सिंह हैं, जो सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि लालू प्रसाद ने कांग्रेस का साथ छोड़कर सबसे बड़ी राजनीतिक भूल की. संसद सत्र में पहुंचे लालू प्रसाद शायद रघुवंश बाबू की बातों का अनुसरण करना शुरू करके नई शुरुआत करना चाह रहे हैं.

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