लालू प्रसाद यादव कहते हैं कि उन्होंने छह माह के लिए मौन व्रत रखा हुआ है. उनके विरोधी कहते हैं कि उनके पास बोलने के लिए कुछ है ही नहीं. लालू के विभिन्न क्रियाकलापों और उनसे एवं अन्य लोगों से बातचीत के आधार पर निराला का आकलन
12 फरवरी को सुबह करीब सवा आठ बजे मैं अपने सहयोगी साथी इर्शादुल हक और विकास के साथ पटना के राबड़ी देवी वाले सरकारी आवास पर पहुंचता हूं. अहाते में कुल जमा चार-पांच लोगों की मंडली जमी है. लुंगी लपेटे, आधी बांह का स्वेटर पहन कुर्सी पर बैठे लालू प्रसाद यादव अखबारों के ढेर को निपटाकर उस पर टीका-टिप्पणी करने में मशगूल हैं. मंडली में कोई नामचीन चेहरा नहीं. राजनीतिक भी नहीं. लगभग डेढ़ घंटे की अवधि तक हम भी उसी मंडली का हिस्सा बनते हैं. उस अवधि में कम से कम चार बार लालू प्रसाद अपने अरदली को भोजपुरी मिश्रित हिंदी में अलग-अलग लहजे में कहते हैं- चाय लाओ रे सबके लिए...! चयवा कहां अटक गया रे...!! चयवा काहे नहीं ला रहा रे...!!! उनका आदेश पहले तो अनुरोध में बदलता है और फिर एक रट भर बनकर रह जाता है. आखिर में जब चला-चली की बेला आती है तो अरदली सिर्फ एक कप नींबू वाली चाय लिए हाजिर होता है.
यह थोड़ा अटपटा लगता है. सुबह-सुबह का समय, मौसम में ठंडेपन का एहसास भी है तो इस लिहाज से चाय का इंतजार वहां मौजूद लालू प्रसाद के कुछ खास मेहमान भी कर रहे थे. खास इसलिए कि लालू उन सबसे जिस तरह भोजपुरी में बोल-बतिया रहे थे - ‘का रे, का हो और का सर’ - उससे साफ लग रहा था कि ये ‘लालू’ से मिलने आने वाले निहायत निजी-से लोग हैं. सत्ता-शासन से बेदखल नेता लालू प्रसाद यादव से मिलने आने वालों में से नहीं. लेकिन उस रोज एक कप नींबू की चाय सामने आते ही लालू प्रसाद बगैर किसी परवाह के अकेले ही चाय सुड़कने में मगन हो जाते हैं. मौके-बेमौके लालू प्रसाद के तीखे प्रहार से तिलमिला जाने वाले उनके घोर विरोधी और आलोचक भी जानते-मानते हैं कि मेहमाननवाजी और खाने-खिलाने के मामले में वे हमेशा ही बहुत दिलवाले रहे हैं. अपने उफान के दिनों में भी कोई निजी वक्त में उनके पास चला जाए तो वे दूध-रोटी, भात-दाल-चोखा साथ में ही बैठकर खाते थे. अगर घर से मिठाई नहीं मंगाते तो वहीं बगान से ही पपीता वगैरह कुछ भी तुड़वाते और खिलाते. तालाब से मछली निकलवाते और बनवाकर सबके साथ खाते. मगर उस सुबह एक कप चाय आते ही लालू का यह भूल जाना कि उन्होंने घंटे भर में कम से कम तीन-चार बार अपने अरदली को सबके लिए चाय लाने को कहा था, सिर्फ अपने लिए नहीं. तो क्या अब लालू इतने लापरवाह-बेपरवाह रहने लगे हैं!
‘अकेले लालू को 80 लाख मतदाताओं ने वोट दिया. हमको जो वोट मिला उसमें पासवान का वोट उतना कहां है, जो है सो लालू यादव का है’
शायद नहीं और शायद हां भी. नहीं, इसलिए कि आज भी गांव-जवार के पुराने मित्रों से लेकर नये-नवेले परिचितों तक को एक निगाह में ही पहचानते हैं वे, भरी भीड़ में भी नाम से संबोधित करके बुलाते हैं. हां की गुंजाइश इसलिए कि उसी रोज चाय मंगाने के पहले उन्होंने अपने अरदली से खैनी भी मांगी थी. खैनी मांगते ही उनकी हथेली पर बनी-बनाई खैनी रख दी गई. हाथ में खैनी लेने के दौरान लालू प्रसाद बातचीत में मशगूल हो जाते हैं. खैनी हथेली से धीरे-धीरे गिरती रहती है और वे फिर भी रट लगाते रहते हैं- खैनिया कहां है रे, खैनिया नहीं बनाया रे, खैनिया दो ना रे... अरदली साहस नहीं जुटा पाता कि कह दे कि आपके हाथे में तो है खैनी. लालू का ध्यान खुद उस पर जाता है, हंसते हुए कहते हैं- ओ, दे दिया है, फिर होठ तले दबाते हैं. और पांच मिनट के अंदर ही अपने पुराने अंदाज में उंगली से होठ को हिडोरते हुए खैनी निकालते हैं और कुरसी की दायीं ओर रखे पीकदान की ओर हाथ फैला देते हैं. अरदली काफी देर तक खैनी लगी उंगली पर पानी की पतली धार गिराता रहता है, तब तक, जब तक कि लालू खुद हाथ हटा नहीं लेते. लालू प्रसाद जब खैनी के बहाने अपनी बेपरवाही पर हंस रहे होते हैं तो ऐसा लगता है कि समूह में भी रहकर लालू अकेले किसी दुनिया में खोए रहते हैं अब! या एक साथ जेहन में कई बातें टकराते रहने की वजह से अब ज्यादा ही बेपरवाह-लापरवाह से रहते हैं. अरदली कहता है, जान-बूझकर ऐसा करते हैं साहब, यही तो उनकी खास पहचान वाली अदा है!
हो सकता है लालू प्रसाद अपनी खास पहचान वाली अदा को बनाए रखने के लिए जान-बूझकर ही ऐसा करते हों, लेकिन चुनाव के पहले से लेकर हार के बाद भी भटकाव, द्वंद्व और दुविधा की दुनिया से वे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, यह कई बातों से जाहिर हो जाता है. 12 फरवरी को जब वे प्रवचन देने की तर्ज पर अपनी बात बता रहे होते हैं तो हर एक मिनट पर बात बदलते रहते हैं. देहाती मुहावरे में कहें तो कभी हंसुआ के बियाह में खुरपी का गीत गाते हैं, तो कभी आम की बात करते-करते ईमली का स्वाद बताने लगते हैं.
बात मीडिया के रवैये से शुरू करते हैं, नीतीश सरकार की कार्यप्रणाली पर आते हैं, गांधीजी, जेपी के बहाने अंग्रेजों के राज को याद करते हैं. इस बीच बार-बार अपने शासन के पुराने दिनों की भी यादें ताजा करते रहते हैं. अपने दिनों को याद करते हुए गर्व और संतोष का भाव बार-बार लाने की कोशिश करते हैं लेकिन वह कुछ पलों से ज्यादा नहीं टिक पाता. मंडली में ही मौजूद एक सज्जन बातचीत को बीच में काटते हुए लालू प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए कहते हैं, ‘सर, बिस्कोमान में चुनाव हो रहा है, सब कहता है कि हर जगह से ललटेन को उखाड़ देना है.’ लालू पल भर में ही गुस्से में आ जाते हैं, ‘अयें, का कह रहा है सब जगह से ललटेन को उखाड़ देगा. एतना आसान है का रे...’ लालू कुछ और बोलना चाह रहे होते हैं लेकिन पल भर में उभरा गुस्सा पल भर में ही शांत हो जाता है और फिर मुस्कुराते हुए कहते हैं- ‘अरे ऐसा कुछ नहीं. लड़ो चुनाव बिस्कोमान में. हम हैं न.’ अभी बिस्कोमान की बात खत्म ही होती है तो एक जूनियर पुलिस अधिकारी वर्दी में वहां पहुंचते हैं. लालू प्रसाद की नजर उधर जाती है- का है हो सिपाही जी! लालू प्रसाद जानते हैं कि वे सिपाही नहीं, उनके बैच-स्टार बता रहे होते हैं कि कोई अधिकारी हैं. लेकिन लालू प्रसाद दो-तीन बार सिपाही जी-सिपाही जी का संबोधन देते हैं. वे पुलिस अधिकारी गिड़गिड़ाने के अंदाज में बोलते हैं, बक्सर से आए हैं सर, आपसे मिलने, आपका दर्शन करने. लालू उससे बात भी कर रहे होते हैं और यह भी कह रहे होते हैं कि अभी बात नहीं करेंगे. जाओ, बाद में आना. पुलिसवाले के साइड में जाने पर फिर गर्व का भाव आता है चेहरे पर, ‘सब एही जगह पहुंचता है. सबको एहिजे पहुंचना होगा.’
एक समय में अलसुबह से देर रात तक लोगों, प्रशंसकों, नेताओं और अधिकारियों का इस कदर मजमा जमता था कि सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिलती थी लालू प्रसाद को. मगर आज जब वे एक जूनियर पुलिस अधिकारी की परिक्रमा का भी अपनी गौरव गाथा के रूप में बखान करते हैं तो एक अजीब-सी विडंबना का एहसास होता है. लालू प्रसाद खुद तो यह कहते हैं कि हमने छह माह तक चुप रहने का संकल्प लिया है, इसलिए अभी कुछ नहीं बोल रहे हैं, सरकार को सहयोग कर रहे हैं. मगर लालू और लालू की राजनीति को जानने वाले जानते हैं कि चुप रहना उनकी मजबूरी है. नीतीश कुमार उन्हीं की बिछाई बिसात पर लगातार उन्हें शह और मात दिए जा रहे हैं. लालू प्रसाद की पहचान सोशल इंजीनियरिंग के मसीहा के रूप में थी, नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग को एक नया विस्तार दे डाला. लालू प्रसाद ने चुनाव के पहले सवर्णों को आरक्षण देने का बुलबुला छोड़ा, नीतीश ने सवर्ण आयोग गठित कर दिया. लालू प्रसाद पिछड़ों और दलितों की बात करते थे, नीतीश अतिपिछड़ों और महादलितों के समीकरण से उन्हें मात दे रहे हैं. गवर्नेंस और डेवलपमेंट की बात पर लालू प्रसाद चाहकर भी आक्रामक तेवर नहीं दिखा पाते. बिहार के सौ साल पर बिहार गीत निर्माण से लेकर तमाम तरह के आयोजनों की तैयारियां सरकारी स्तर पर चल रही हैं, इस पर लालू प्रसाद कुछ बोलेंगे तो सवाल होगा कि आपने तो कभी बिहार स्थापना दिवस मनाने की कोशिश की ही नहीं. इसी तरह बिहारी उपराष्ट्रीयता और बिहारी अस्मिता को लेकर जो नया उफान दिख रहा है उस पर भी लालू प्रसाद को मन मसोसकर चुप रहना पड़ रहा है. यह बात अलग है कि बिहारी उपराष्ट्रीयता की एक बड़ी पहचान खुद लालू प्रसाद और उनकी राजनीति रही है. लेकिन फिलहाल नीतीश कुमार की इन सधी हुए चालों से लालू प्रसाद चाहकर भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं आ पा रहे हैं. और जिन मसलों पर लालू प्रसाद नीतीश को घेर सकते हैं उन विषयों पर रणनीति बनाने वाले रणनीतिकार लालू के पाले में नहीं बचे हैं.
‘उहो अब बहुते स्टाइल मारकर लालू यादव की नकल करने की कोशिश करते हैं लेकिन स्टाइल मारने से कोई लालू यादव हो जाएगा!’
तो क्या अगले कुछ सालों तक, जब तक लोकसभा या विधानसभा चुनाव की बारी न आ जाए, लालू प्रसाद ऐसे ही चंद लोगों की मंडली में बैठ टीका-टिप्पणी करते रहेंगे. यह सवाल 12 फरवरी को उनकी मंडली में शामिल होते हुए बार-बार जेहन में उठ रहा था. हालिया दो दशक में ऐसा दौर शायद ही कभी लालू प्रसाद ने देखा हो. कभी खुद सीएम हुआ करते थे, बाद में पत्नी सीएम बन गईं, दोनों साले सुभाष और साधु बिहार के राजनीतिक गलियारे के नक्षत्र बन गए थे. अब साधु-सुभाष अपनी-अपनी राह पकड़कर राजनीति में हाशिये पर हैं. पत्नी राबड़ी देवी खुद दो-दो जगहों से चुनाव हार चुकी हैं. लालू प्रसाद को खुद उनके राजनीतिक दोस्त से पक्के दुश्मन बने शरद यादव और रंजन यादव चुनावी जंग में पटखनी दे चुके हैं. बेटे को भी पिछले चुनाव में लालू ने लॉन्च किया, लेकिन वह भी अब चुनाव के बाद झारखंड प्रीमियर लीग खेलने की तैयारी में है. हालांकि विगत वर्षों तक, जब खुद लालू प्रसाद रेल मंत्री रहे, उनका जलवा बरकरार रहा लेकिन जिस जगह से कभी बिहार की सत्ता-शासन की बागडोर नियंत्रित होती थी वहां से अब ज्ञान-दर्शन के स्वर सुनाई पड़ते हैं.
लालू प्रसाद से जब हम विदा लेने को होते हैं तो वे आखिर में किसी सचेत अभिभावक की तरह समलैंगिकता और प्यार-मोहब्बत के प्रसंग पर बात करते हुए समाज को दुत्कारते हैं. लालू प्रसाद किसी प्रवचनकर्ता की मुद्रा में फिर आते हैं और चिंतित भाव से कहते हैं, बताइए भला. अब लेस्बियनिज्म को मान्यता मिल रहा है. जो जानवर नहीं करता, वह इंसान करेगा. छीः,छीः,छीः... कोई विरोध भी नहीं कर रहा. समाज को चाहिए कि ऐसी प्रवृत्तियों का विरोध करे नहीं तो सब बर्बाद हो जायेगा.' लालू प्रसाद सिर्फ राबड़ी देवी वाले आवास की चारदीवारी में ही ज्ञान-दर्शन की बातें और मौके-बेमौके एक गंभीर और बुजुर्ग अभिभावक के जैसी अपनी राय नहीं रख रहे हैं. कुछ रोज पहले वे भागलपुर पहुंचे तो वहां भी उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता को जमकर कोसा और कहा कि पाश्चात्य सभ्यता भारतीय युवाओं को बर्बाद कर रही है. फरवरी में ही वे बनारस में एक विवाह समारोह में पहुंचे तो पत्रकारों ने उन्हें बढ़ती महंगाई के सवाल पर घेरा. लालू प्रसाद ने व्यंग्यात्मक लहजे में जवाब दिया, अच्छा ही है, महंगाई बढ़ेगी तो लोग पैदल ज्यादा चलेगें. ज्यादा पैदल चलेगें तो डायबिटिज का खतरा कम होगा.
‘लेरसियन (लेस्बियन) को मान्यता दिया गया है. जो जानवर के समाज में भी एलाउ नहीं है, उ इंसान के समाज में एलाउ किया जा रहा है’
विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद खुद के कहे अनुसार तो वे मौन व्रत्त में हैं लेकिन जब भी मौका मिलता है, खूब बोलने की कोशिश करते हैं. बस बोल लेने के बाद यह जरूर दुहरा देते हैं कि हम अभी चुप हैं, चुप रहेंगे, मौनव्रत्त में चल रहे हैं और छह महीने बाद बोलेंगे तो सब कुछ बोलेंगे. खुद के खुल के बोलने के लिए लालू प्रसाद द्वारा निर्धारित छह में से तीन महीने निकल चुके हैं. इन महीनों में लालू प्रसाद पांच-छह बार अपनी बात बोलने की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन कोई ऐसी बात नहीं जिस पर सरकार को या सरकारी मकहमे को बचाव की मुद्रा में आना पड़े. अब उनकी बातें अखबारों में भी खबरों के ढेर में कहां दबकर रह जा रही हैं, पता नहीं चल पाता.
21 फरवरी को पटना के भारतीय नृत्य कला मंदिर में भी कुछ ऐसा ही हुआ. लालू यादव जिंदाबाद की नारेबाजी जारी थी. रविदास चेतना मंच द्वारा संत रविदास जयंती का आयोजन था. आयोजन का सबसे बड़ा आकर्षण यह बताया गया था कि इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए लालू यादव दिल्ली से पटना आ रहे हैं. सिर्फ इसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आ रहे हैं, ऐसा बार-बार कहा जा रहा था. लालू प्रसाद आते हैं. आते ही सबसे पहले सामने से मीडियाकर्मियों को कैमरा वगैरह हटाने के लिए कहते हैं. संचालक शिवराम दूसरी घोषणा करने लगते हैं. सामने जो भी भाई-बहिन बैठे हुए हैं, सीट खाली कर दें, वहां मीडिया के लोग बैठेंगे. लालू बीच में ही हत्थे से उखड़ जाते हैं, ‘एकदम से बुड़बके हो का जी. हम कैमरवा सब को हटाने के लिए कह रहे हैं तो तू दोसरे गीत गा रहे हो...’ अपने दल के नेता रघुवंश बाबू के बोल लेने के बाद लालू बोलना शुरू करते हैं. अपनी जगह से बैठे-बैठे ही. खूब बोलते हैं लेकिन उनके बोले-कहे में संत रविदास का नाम शायद ही कभी आया हो. सरकार के खिलाफ बोलते रहते हैं, ‘शिकारी आएगा,जाल बिछाएगा...’ का किस्सा सुनाते हैं. तीर और कमल के घालमेल से बचकर रहने की नसीहत देते हैं. पटना में सड़क किनारे से हटाए जा रहे गरीबों-दुकानदारों के पक्ष में बोलते हैं, साइकिल बांट योजना की तुलना इससे करते हैं. गरीबों को आटा का पैकेट सीधे दिए जाने पर मजाक करते हुए कहते हैं कि सड़लका गेहूं देगा, सावधान रहियो. जनगणना में जरूर से जरूर नाम दर्ज करवाने की अपील करते हैं. यह भी कहते हैं कि ई जो पटना में बड़का-बड़का बिल्डिंग बन रहा है, उ सब पईसा कहां से आ रहा है, इस पर हिसाब मांगेंगे. इतना कुछ बोलने के बाद लालू प्रसाद अंत में कहते हैं, 'अभी हम मौन व्रत्त में हैं इसलिए कुछ नहीं बोल रहे हैं, छह महीना कुछ नहीं बोलेंगे. बीच-बीच में बोल के टैबलेट दे रहे हैं, बाद में तो सुई भोंकेगें, उ करना भी जानता है लालू जादव लेकिन अभी चुप है.' यह किस किस्म का मौन व्रत्त है, लालू प्रसाद खुद नहीं समझ पा रहे, दूसरों को तो क्या खुद को ही नहीं समझा पा रहे हैं.
मौनव्रत के आधे समय यानी तीन माह गुजरने के क्रम में लालू प्रसाद कुछेक बार मीडिया में दिखे हैं. नये साल के आरंभ में वे जगन्नाथ पुरी मंदिर गए थे. सो खबरिया दुनिया जहां नीतीश, सुशील मोदी और दूसरे नेताओं के शुभकामना संदेशों से पटी थी वहीं लालू का जिक्र तक नहीं था. बीच में एक दफा जनगणना करने वाले उनके घर पहुंचे तो लालू प्रसाद ने थोड़ा जनगणना पर भी व्याख्यान दे डाला. बिहार में जब उनकी पार्टी के भविष्य का आकलन हो रहा था तो लालू प्रसाद अंडमान-निकोबार में कार्यालय खोलने गए, चटखार अंदाज में अंग्रजी मीडिया में लालू दो-चार पंक्तियां बोलते दिखे. फिर महंगाई पर उनका बयान आया कि अब तो घी से भी महंगा हो जाएगा पेट्रोल. पूर्णिया विधायक नवल किशोर केशरी हत्याकांड में सीबीआई जांच की मांग की गई तो उनके नाम कर चर्चा हुई. 26 जनवरी को अपने यहां नेहरू टोपी लगाकर झंडा फहराया, सभी मीडियावालों को खबर पहुंचाई गई लेकिन कुछेक ने ही उन्हें जगह दी. कर्पूरी ठाकुर के नाम पर हुए समारोह में भाजपा पर निशाना कसा तो थोड़ी-बहुत चर्चा हुई और जब भारतीय जनता युवा मोर्चा की ओर से कश्मीर में झंडा फहराने की तैयारी हो रही थी, कारवां बिहार से गुजर रहा था तो लालू प्रसाद की आवाज सुनाई पड़ी थी कि इस सरकार में भाजपा और संघियों का मन बढ़ रहा है, कांग्रेस मर गई है. किसी न किसी बात पर रोज मीडिया में छाए रहने वाले लालू प्रसाद तीन माह में पांच-छह बार दिखायी-सुनायी पड़े. हाशिये से हस्तक्षेप की कवायद कर रहे हैं. लालू प्रसाद के सिपहसालार कहते हैं कि साहेब मीडियावालों से दूरी बनाकर रखे हुए हैं. मीडिया के लोग कहते हैं कि अब उनमें क्या रक्खा है, जो...
चर्चित पत्रकार और लेखक हेमंत, जिन्होंने ‘बतकही बिहार की’ में लालू युग का बहुत ही शिद्दत से डॉक्यूमेंटेशन किया है, पुराने दिनों के कुछ किस्से सुनाते हैं. वे बताते हैं कि लालू प्रसाद अभी ताजा-ताजा मुख्यमंत्री बने थे. बेली रोड से होते हुए उनकी गाड़ी गुजर रही थी. रास्ते में उन्होंने जबर्दस्ती हेमंत को भी गाड़ी में बैठा लिया और लेकर दानापुर चले गए. दानापुर क्यों जा रहे हैं, पूछने पर पता चला कि वहां शौचालय का उद्घाटन करेंगे लेकिन शिक्षा पर बोलेंगे. लालू प्रसाद ने वही किया भी. गांव के लोगों के बीच जाकर, उनके ही मुहावरों में घंटों बोलते रहे. हगना-मूतना जैसे गंवई शब्द राज्य के मुखिया के जुबान से सुनकर गंवई भींड़ खिंचती चली आई. शौचालय और शिक्षा के रिश्ते को जोड़ लालू प्रसाद वहां से विदा हो गए और भीड़ लालू पर फिदा हो गई, उस इलाके के लोकमानस में यह लालुई शैली बस गई. फिर एक बार वे सासाराम में गए. तकरीबन एक लाख की भीड़ थी. लालू प्रसाद मंच पर पहुंचे. बोलने की बजाय उन्होंने पूछा कि इस भीड़ में कोई है जो ताड़ के पेड़ से ताड़ी उतारना जानता हो. कई हाथ एक साथ उठे. लालू ने सबको मंच पर आने को कहा. ताड़ी उतारने वाले मंच के पीछे से ऊपर आने के लिए बढ़े. लालू ने कहा कि सीढ़ी से क्या आना है, सामने से तड़पकर चढ़ो मंच पर, यह लालू का मंच है. देखते ही देखते कई नौजवान तड़पकर मंच पर चढ़ गए. लालू ने सबसे भाषण दिलवाया और ताड़ी उतारने से पीठ पर पड़े दागों को दिखाते हुए कहा कि इसी दाग को मिटाएगा लालू जादव. आज से ताड़ी का टैक्स माफ. गुजरे जमाने के कई किस्से जब हेमंत सुना रहे होते हैं तो यह पुराने जमाने के किसी राजा के किस्सों सरीखा लग रहा होता है. नयी पीढ़ी लालू प्रसाद के उन किस्सों से नावाकिफ है. अब लालू प्रसाद के अनुसार लालू जादव मौनव्रत्त में है, कभी उनके आगे-पीछे रहनेवाला मीडिया उनसे बेरुखी अपना रहा है. 2005 के चुनाव के बाद भी लालू हारे थे, लेकिन उम्मीदों के सहारे बोलते रहते थे. केंद्र में रेलमंत्री थे तो भी कुछ जलवा रहा. लालू प्रसाद के खास माने जाने वाले उनके दल के एक सांसद कहते हैं, ‘बिहारी राजनीति का लालुई अंदाज अब इतिहास बनने की राह पर है. राजनीति की लालू शैली या लालू की राजनीतिक शैली उसी राह पर है.’ क्या सब इतिहास हो गया? लेखक प्रसन्न चौधरी कहते हैं, ‘समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलाव ऐसे ही होता है. अब किसी नये नाम के उभार का इंतजार कीजिए.’
हालांकि कुछ लोग उम्मीद कर रहे हैं कि अपने राजनीतिक जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके लालू जल्दी ही इससे उबरेंगे और आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बचे अच्छे-खासे समय का इस्तेमाल अपनी धार को मजबूत करने, संगठन को सक्रिय करने और बिहार में नीतीश सरकार को सवालों के घेरे में लाकर विपक्ष को खाद-पानी देने में करेंगे. लेकिन नीतीश सरकार के लगभग तीन माह हो जाने के बाद अब तक लालू प्रसाद राजनीतिक मोर्चे पर उस ढर्रे पर चलते हुए नहीं दिख रहे. शायद अभी वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि करना क्या है. किस राह को पकड़ना है? इसलिए जब संसद सत्र में भाग लेने गए तो कांग्रेस के पक्ष में खड़े होते नजर आए जबकि कुछ दिनों पहले उन्होंने यह कहा था कि कांग्रेस मर गई है. उनके दो विश्वस्त क्षेत्रीय साथियों में से एक जगतानंद सिंह हैं, जिनके बेटे भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर अपना भाग्य आजमा चुके हैं. दूसरे रघुवंश प्रसाद सिंह हैं, जो सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि लालू प्रसाद ने कांग्रेस का साथ छोड़कर सबसे बड़ी राजनीतिक भूल की. संसद सत्र में पहुंचे लालू प्रसाद शायद रघुवंश बाबू की बातों का अनुसरण करना शुरू करके नई शुरुआत करना चाह रहे हैं.
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