संजय द्विवेदी
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय एक ऐसी लीलाभूमि है, जो नित नए प्रयोगों के लिए जानी जाती है। वहां बैठने वाला हर मंत्री अपने एजेंडे पर इस तरह आमादा हो जाता है कि देश और जनता के व्यापक हित किनारे रह जाते हैं। अब कपिल सिब्बल के पास इस मंत्रालय की कमान है। उन्हें निजीकरण का कुछ ज्यादा ही शौक है।
वह अब लगे हैं कि किस तरह नए प्रयोगों से शिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी परिर्वतन कर दिए जाएं, किंतु इस तेज बदलाव के प्रयास के पीछे उनकी या मंत्रालय की सुचिंतित व स्पष्ट अवधारणा शायद ही है। बाजार को अच्छे लगने वाले परिवर्तन करके हम अपने उच्च शिक्षा के क्षेत्र का कबाड़ा ही करेंगे, लेकिन लगता है मानव संसाधन विकास मंत्रालय इन दिनों काफी उदार हो गया है। खासकर निजी क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए उसके प्रयासों को इस नजर से देखा जा सकता है।
चिंता यही है कि उसके हर कदम से कहीं बाजार की शक्तियां मजबूत न हों और उच्च शिक्षा का वैसा ही बाजारीकरण न हो जाए जैसा हमने प्राथमिक शिक्षा का कर डाला है। किंतु लगता है कि सरकार ने वही राह पकड़ ली है। ताजा सूचना यह है कि प्रतिष्ठित संस्थानों को अधिक स्वायत्तता देने के कदमों के तहत प्रेसिडेंसी, सेंट जेवियर और सेंट स्टीफेंस जैसे कॉलेजों को यह छूट दी जाएगी कि वे अपनी डिग्री खुद दे सकें। मानव संसाधन विकास मंत्रालय को लगता है कि इस कदम से विश्वविद्यालयों के भार में कमी आएगी। अब इसे कानून के जरिये लागू करने की तैयारी हो रही है।
कॉलेज अभी तक डिग्रियों के लिए विश्वविद्यालयों पर निर्भर रहते हैं। एनआर माधव मेनन समिति की सिफारिशों में विशेष शिक्षण स्वायत्तता पर जोर दिया गया है। जाहिर तौर पर यह कदम एक क्रांतिकारी कदम तो है, लेकिन इसके हानि और लाभों का भी आकलन किया जाना जरूरी है। कुछ बेहतर कॉलेजों को लाभ देने के लिए शुरू की जाने वाली यह योजना खराब कॉलेजों या सामान्य संस्थानों तक नहीं पहुंचेगी इसकी गारंटी क्या है? इसके खतरे बहुत बड़े हैं।
कॉलेजों की क्षमता का आकलन कौन करेगा यह भी एक बड़ा सवाल है। किस आधार पर सेंट स्टीफेंस बेहतर है और दूसरा बदतर। आखिर इस आकलन का पैमाना क्या होगा? ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने मौजूद हैं। इसी तरह एक दूसरी बड़ी बात यह है कि इससे शासकीय विश्वविद्यालयों की प्रतिष्ठा कम होगी और वे धीरे-धीरे एक स्लम में बदल जाएंगे। सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालय बदहाली के शिकार हैं, किंतु हमारे मानव संसाधन मंत्री को विदेशी और निजी विश्वविद्यालयों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में भारत में खुलवाने की जल्दबाजी है।
आखिर यह तेजी क्यों दिखाई जा रही है और कपिल सिब्बल इतनी हड़बड़ी में क्यों हैं? क्यों हम अपने पारंपरिक विश्वविद्यालयों की अकादमिक दशा व दिशा को सुधारने के लिए अपेक्षित प्रयास नहीं करते दिख रहे। आखिर इन्हीं संस्थाओं ने हमें योग्य प्रतिभाएं दी हैं, जो न केवल अपने देश में, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी अपना नाम रोशन कर रहे हैं। वारेन बफेट के मुताबिक अजीत जैन जैसे लोग सरकारी आइटीआइ से ही पढ़कर निकले हैं तो क्या इन संस्थाओं की प्रासंगिकता अब खत्म हो चुकी है, जो हम इन्हें स्लम बनाने पर आमादा हैं।
शिक्षा का काम सरकार और समाज करे तो समझ में आता है किंतु पैसे के लालची व्यापारी और कंपनियां अगर सिर्फ पैसे कमाने के मकसद से आ रही हैं तो क्या हमें सतर्क नहीं हो जाना चाहिए। आए दिन खुल रहे नए-नए निजी विश्वविद्यालय अपनी चमक-दमक से सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों को निरंतर चुनौती दे रहे हैं। यह एक ऐसा समय है जिसमें निजी क्षेत्र को अपनी ताकत दिखाने का निरंतर अवसर है। कॉलेजों की स्वायत्तता एक ऐसा कदम होगा जिससे हमारे विश्वविद्यालय कमजोर ही होंगें और कॉलेजों पर नियंत्रण रखने का उपाय हमारे पास आज भी नहीं है।
कम से कम विश्वविद्यालय से संबद्धता के नाम पर कुछ नियंत्रण बना और बचा रहता है, लेकिन अब वह भी खत्म होने के कगार पर है। इसे बचाने की जरूरत है। इसके लिए आवश्यक है कि ऐसी कोई समानांतर व्यवस्था बनाई जाए जो इन कॉलेजों का नियमन कर सके। किंतु वह व्यवस्था भी भ्रष्टाचार से मुक्त होगी इसमें फिलहाल संदेह ही है। आप कुछ भी कहें हमारी ज्यादातर नियामक संस्थाएं आज भ्रष्टाचार का एक केंद्र बन गई हैं। निजीकरण की तेज हवा ने इस भ्रष्टाचार को एक आंधी में तब्दील कर दिया है।
विभिन्न कोर्सेज की मान्यता प्रदान करने के लिए ये नियामक संस्थाएं कैसे और कितने तरह का भ्रष्टाचार करती हैं इसे निजी क्षेत्र के शिक्षा कारोबारियों से जाना जा सकता है। हालांकि इसका अंतत: फल भुगतता बेचारे अभिभावक और छात्र ही हैं, क्योंकि यह सारा धन तो अंततोगत्वा तो उसकी जेब से ही वसूला जाता है।
अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाने वाली हमारी लोक कल्याणकारी सरकारें भले ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश और विदेश निवेश के लिए लाल कालीन बिछाने पर आमादा हों, लेकिन इससे उच्च शिक्षा एक खास तबके तक शायद सीमित होकर रह जाएगी। यह गंभीर चिंता का विषय है कि केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक निरंतर निजी विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहन देने वाली नीतियों को बनाने में लगी हैं और अपने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की चिंता उन्हें शायद ही है। सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं, लेकिन इसकी चिंता राज्यों की सरकारों को नहीं है। जनता की जिम्मेदारी से जुड़े हर काम से अपना हाथ खींचकर सरकारें सारा कुछ बाजार को सौंपने पर आमादा हैं, जिसके कारण को समझना फिलहाल एकमुश्किल काम है। आज शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र पूरी तरह बाजार के हवाले हो चुके हैं।
क्या इस तरह के कामों से एक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का मजाक नहीं बनाया जा रहा है। यह समझ में नहीं आने वाली बात है कि एक व्यापारी अपने ब्रांड का विस्तार करता है और उसका संरक्षण भी करता है किंतु हमारी सरकारें अपने स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और अस्पतालों को उजाड़ने में लगी हैं। ऐसे में आम आदमी के सामने विकल्प क्या बचता है।
महंगी शिक्षा और महंगा इलाज क्या एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से मेल खाते हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को मजबूत करते हुए हम क्या संदेश देना चाहते हैं। क्या वास्तव में हमने अपने जनतंत्र को एक मजाक बनाने की ठान ली है और हमारे पास दूसरे कोई विकल्प नहीं हैं। कुल मिलाकर सारी कवायद कुछ निजी कॉलेजों को ताकत देने का तक ही सीमित लगती है। इसमें व्यापक हितों की अनदेखी की जा रही है।
सरकार जिस तरह निजी क्षेत्र पर मेहरबान है उसमें कुछ भी संभव है, लेकिन इतना तय है कि आम आदमी के लिए उच्च शिक्षा का क्षेत्र आने वाले दिनों में एक सपना हो जाएगा। इससे समाज में तनाव और विवाद की स्थितियां ही बनेंगी। केंद्र सरकार कॉलेजों को स्वायत्तता देने के सवाल पर थोड़ी संजीदगी दिखाए, क्योंकि इसके कई खतरे हैं। पूरे मसले पर व्यापक विमर्श के बाद ही कोई कदम उठाना उचित होगा, क्योंकि यह सवाल आम लोगों के भविष्य से भी जुड़ा है।
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