सोमवार, 13 जून 2011

जल ही जीवन

अवनीश सिंह

जल पर्यावरण का अभिन्न अंग है, मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। मानव स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ जल का होना नितांत आवश्यक है। जल की आवश्यकता केवल मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि उन सबको भी है, जिनमें प्राण हैं। चाहे वह पशु-पक्षी हों या फिर पेड-पौधे। पुरातन समय से ही जल की महत्ता को मानव ने जाना और समझा है। ऋग्वेद की रचनाओं में जल की स्तुति की गई है। इतिहास गवाह है कि विश्व के सभी देश विभिन्न नदियों एवं घाटियों की गोद में फले-फूले और विकसित हुए हैं।

देश की जिन नदियों में कभी पानी की निर्मल धारा बहती थी, आज वहां दुर्गध के भभके उठते रहते हैं। इन नदियों का पानी प्रदूषण के खतरे की सभी सीमाएं पार कर चुका है। भूजल स्तर के गिरने के साथ पेयजल जहरीला भी होता जा रहा है। रसातल की ओर लौट रहे इस पानी में कई तरह के खतरनाक रसायनों और खनिज तत्वों के घुलने से पीने के साफ पानी का भी टोटा हो गया है। देश के बहुत से हिस्सों में जमीन के नीचे का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। उसमें अनेक विषैले रसायन और स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक धातुएं मिल चुकी हैं।

छोटी-बड़ी कई नदियों वाले उत्तर भारत में साफ पानी की भारी किल्लत है। लोगों के स्वास्थ्य पर अब इस दूषित पानी का असर लगातार बढ़ता दिखाई दे रहा है। देश के बीस राज्यों में बहने वाली 38 प्रमुख नदियों की सफाई पर पिछले दस सालों में लगभग 26 अरब रुपये खर्च किए गए, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। इन नदियों में यमुना, गंगा, गोमती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, दामोदर, महानंदा, सतलुज जैसी बड़ी नदियां शामिल हैं। इनमें से एक-एक नदी की सफाई के लिए संबंधित राज्यों को सैकड़ों करोड़ रुपये दिए गए। न तो आवंटित रकम कम थी और न ही एक दशक का समय छोटा कहा जा सकता है। फिर भी इन नदियों का पानी स्वच्छ होने के बजाय कई जगह जहरीला हो गया। उनमें पाई जाने वाली मछलियां और अन्य जीव-जंतु भी मर गए। ये तथ्य इस बात का इशारा करते हैं कि पैसा जरूर पानी की तरह बहाया गया, पर वह निर्धारित मकसद में नहीं लगा।

ग्रामीण पेयजल आपूर्ति की हालत और भी खराब है। खासतौर से उत्तरी राज्यों में स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति का सिर्फ पांच फीसदी सरकारी योजनाओं पर निर्भर है। बाकी 95 फीसदी पेयजल के लिए लोग कुओं पर निर्भर हैं, लेकिन भूजल स्तर के नीचे खिसकने से ज्यादातर कुएं भी सूख गए हैं। उनकी जगह हैंडपंप और नलकूपों ने ले ली है। इन माध्यमों से निकल रहा पानी गुणवत्ता की दृष्टि से जहर से कम नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 85 फीसदी पेयजल का स्त्रोत भूजल है। इसके बावजूद ज्यादातर लोगों के लिए दूषित पेयजल पीना उनकी नियति बन गई है।

आज देश का एक भी विकास खण्ड भूजल की दृष्टि से सुरक्षित नहीं है। आजादी के वक्त 232 गांव संकटग्रस्त थे। आज दो लाख से ज्यादा यानी हर तीसरा गांव पानी की चुनौती से जूझ रहा हैं। देश के 70 फीसदी भूजल भंडारों पर चेतावनी की छाप साफ देखी जा सकती है। पिछले 16 वर्षों में 300 से ज्यादा जिलों के भूजल में चार मीटर से ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है। जम्मू, हिमाचल, से लेकर सबसे ज्यादा बारिश वाले चेरापूंजी तक में पेयजल का संकट हैं। पंजाब के भी करीब 40 से अधिक ब्लॉक डार्क जोन हैं। बेचने के लिए पानी के दोहन ने दिल्ली में अरावली के आसपास जलस्तर 25 से 50 मीटर गिरा दिया है। राजस्थान के अलवर-जयपुर में एक दशक पहले ही अति दोहन वाले उद्योगों को प्रतिबंधित कर देना पड़ा था। उत्तर प्रदेश के 820 में से 461 ब्लॉकों का पानी उतर रहा है। मध्य प्रदेश के शहरों का हाल तो बेहाल है ही, सुदूर बसे कस्बों में भी आज 600-700 फीट गहरे नलकूप हैं। सब जगह पानी का संकट है।

नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने की कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन दो हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी गंगा मैली की मैली ही है। हरिद्वार से हुगली तक उसका पानी आचमन लायक भी नहीं रहा। दूसरी नदियों का हाल तो और भी बुरा है। सरकारी सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार भूजल में रासायनिक प्रदूषण के अलावा स्वास्थ्य के लिए घातक खनिज तत्व घुले हैं। भूजल में ये तत्व प्राकृतिक रूप से मिले हुए हैं। रासायनिक उर्वरक और सीवरेज से भूजल में नाइट्रेट घुल रहा है। पानी में इसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा प्राकृतिक रूप से घुली है। इसे पीने के लायक स्वच्छ बनाना बहुत सरल नहीं है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस प्रदूषण को रोकने या खत्म करने के लिए भारी भरकम बजट वाली योजनाएं बनी हैं। इन योजनाओं पर अरबों रुपये भी खर्च भी किए जा चुके हैं, लेकिन सफाई के मामले में इसकी हालत ज्यों की त्यों है। यह देखकर अचरज होता है कि आखिर हमारा सरकारी तंत्र करता क्या है? इस बड़ी चुनौती से निपटने के लिए बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी के संचयन की जरूरत है। सरकारी एजेंसियां भी मानती हैं कि खतरनाक तत्वों को पानी से अलग करने की कारगर तकनीक का देश में अभाव है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश की 7067 बस्तियों के निवासी आर्सेनिक और 29070 बस्तियों के लोग फ्लोराइड युक्त भूजल पीने को मजबूर हैं। एक लाख से ज्यादा बस्तियों के लोग लौह तत्व घुले भूजल पर गुजारा कर रहे हैं। इन बस्तियों के लोगों के पास पेयजल का कोई और विकल्प नहीं है।

जेठ के इस महीने में सब तरफ पानी की ही चर्चा। पानी-पानी चिल्लाते लोग! पानी के लिए झगडा-मारपीट! लेकिन पानी है कहां? सूखते चेहरे, सूखती नदियां-कुएं-तालाब-झीलें! चटकती धरती और पानी की टूटती परंपराएं व कानून! सब कुछ जैसे बेपानी होने को लालायित है। यह है महाशक्ति बनने का दंभ भरता भारत! पर ताज्जुब है कि आज अपनी इस नाकामी पर कोई भी पानी-पानी होता नजर नहीं आता; न समाज, न सरकार, न नेता और न ही अफसर।

इस समस्या से बचने का एक ही रास्ता है कि नागरिक उठ खड़े हों और जल स्रोतों को गंदा करने वाले कल-कारखानों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दें। पर्यावरण की सुरक्षा आज इस देश की सबसे बड़ी समस्या है। अब आज और कल के मनुष्य का अस्तित्व इसी पर निर्भर है। संतोष की बात है कि इस संदर्भ में अदालतें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, लेकिन यह जनता का भी काम है कि वह अपनी नदियों को साफ-सुथरा रखे।

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