राष्ट्रीय छात्रशक्ति
शिक्षा क्षेत्र की अग्रणी पत्रिका
सोमवार, 13 जून 2011
कांग्रेस की बुद्धि भ्रष्ट हुयी
समस्याओं के समाधान के लिए 'स्टूडेंट हेल्प लाइन'
मेरठ, 17 मई। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के तत्वाधान में अमर उजाला के संपादक सूर्यकान्त द्विवेदी ने सूरजकुण्ड स्थित कार्यालय में छात्रो के करियर समाधान, प्रवेश समस्या आदि को लेकर प्ररंभ की गयी हेल्प लाइन का उदघाटन किया। इस अवसर पर श्री द्विवेदी ने कहा कि शिक्षा क्षेत्र में विद्यार्थी परिषद् द्वारा किये जा रहे कार्य छात्रों और युवाओं के लिए प्रेरणादायी हैं।
उन्होंने हेल्प लाइन को आज की आवश्यकताओं के अनुरूप बताते हुए कहा कि परिषद् की यह पहल छात्रों की समस्याओं के समाधान के लिए उपयोगी साबित होगी। छात्रों की समस्याओं के समाधान के लिए बनी यह हेल्प लाइन एक सराहनीय प्रयास है, इससे दूर-दराज़ के छात्र-छात्राओं को घर बैठे सूचनायें मिल जाने से उनका समय तथा पैसा दोनों बचेगा।
आई ज्ञान की आंधी
आशुतोष
कबीरदास ने कहा है – संतों भाई, आई ज्ञान की आंधी। भ्रम की टाटी सबै उड़ाणी, माया रहे न बाकी। आंधी तो आंधी है। वह जब आती है तो सब कुछ उड़ा ले जाती है। ऊंचा-नीचा, अच्छा-बुरा, उजला-काला, रात-दिन, कुछ नहीं देखती। सामने तिनका हो या पूरा पेड़, वह उसे उड़ा ले जाने की कोशिश करती है। तिनके नाजुक भी होते हैं और हल्के भी। जिसमें अपना वजन नहीं होता वह हवाओं के सहारे ही उड़ते हैं। जमीन से जुड़ाव खत्म होने के बाद तिनकों की यही नियति होती है। यह उड़ान नहीं भटकाव है। मिट्टी में मिल जाने की प्रक्रिया है।
वृक्ष अपनी जड़ों को धरती में गहरे तक उतार देता है। धरती से यह रिश्ता ही उसे जीवनी शक्ति देता है। उसके अंदर प्राण का संचार करता है। उसे आंधी-तूफानों के सामने सीना तान कर खड़े होने का हौंसला देता है।
आंधी में ताकत है। वेग है। जो भी सामने आये उसे अपने साथ उड़ा ले जाने का जुनून है। सब कुछ तहस-नहस कर देने का माद्दा है।
कबीर ने आंधी के इस चरित्र को आध्यात्मिक रहस्यवाद में पिरोया है। माया के अंधेरे में ज्ञान का उजाला फैलाने की साधना भारत की ऋषि परम्परा में जीने वाले महापुरुष करते रहे हैं। ज्ञान की आंधी चला कर भ्रम की टाटी उड़ाने वाले को ही लोग गुरु मानते हैं। उनका अनुगमन करते हैं। मानते हैं कि वह गुरू ही उन्हें बेहतर जीवन का मार्ग दिखायेंगे। भ्रम दूर होगा, सत्य से साक्षात्कार होगा।
पश्चिम की दुनियां में ऐसे संतों का अब अकाल ही है, लेकिन भारत में आज भी सच्चा गुरु खोज लेना बहुत कठिन नहीं है। प्रोद्योगिकी के चलते इसमें और अधिक सुविधा हो गयी है। अब टेलीविजन पर देख कर ही लोग गुरु का चुनाव कर लेते हैं। गुरू भी इसी माध्यम से उनका मार्गदर्शन करते हैं।
लाखों लोग गत कुछ वर्षों से टीवी चैनलों पर देख कर गुरुदेव को अपना गुरू मान चुके थे। उनसे प्रेरणा लेकर वे सुबह-सुबह टीवी देख कर उनके द्वारा बतायी गयी यौगिक क्रियाओं को दोहरा कर अपनी स्थूल काया को कामचलाऊ बनाने में सफल रहे थे। योग के बीच में बाबा के वचन भी उन्हें आध्यात्मिक ऊंचाई और राष्ट्रीय चेतना में सराबोर कर रहे थे।
सुबह का एक घंटा गुरुदेव को समर्पित कर दिन भर दुनियांदारी की तमाम तिकड़मों के बीच संतुलन बिठाते हुए लोग सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। लेकिन यही स्थिति है जब माया घेरती है। माया ने अपना जाल रचा। गुरु और शिष्य, दोनों ही उस लोक की ओर बढ़ते-बढ़ते ठिठक गये। इस लोक में जब चारों ओर नजर घुमाई तो कष्ट में जीते, भूख और गरीबी से त्रस्त करोड़ों आकुल-व्याकुल लोगों को अपने चारों ओर पाया।
गुरुदेव ने नेत्र मूंदे और पता लगा लिया कि यह लोग भाग्य के मारे अभिशप्त लोग नहीं हैं। भगवान की इन पर पूरी कृपा है। इनकी सम्पत्ति का अपहरण तो उन सफेदफोशों ने किया है जिन्हें कलियुग में नेता और व्यापारी कहते हैं। इसी परमावस्था में उन्हें यह भी आभास हुआ कि उनमें भी परमात्मा की दिव्य अंश हैं और इस नाते भगवान की ‘परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम’ की प्रतिज्ञा पूरी करने का दायित्व उनका है। गुरुदेव ने देश भर में घूम-घूम परिवर्तन की अलख जगायी और जब उन्हें यह भरोसा हो गया कि अब युद्धभूमि तैयार हो चुकी है तो उन्होंने ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ युद्ध की घोषणा कर दी और देश भर में फैले अपने शिष्यों को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित दिव्य लीला का साक्षी बनने का निमंत्रण भेज दिया। द्वापर में धर्मयुद्ध का साक्षी बनने से वंचित सभी आत्माओं ने इस निमंत्रण को हाथों-हाथ लिया। नियत तिथि को लोगों के हुजूम रामलीला मैदान में जुटने लगे।
गुरुदेव ने भ्रष्टाचारियों का नाम ले-ले कर यज्ञकुंड में आहुतियां डालनी प्रारंभ कीं। इस लोक के महारथियों तक जब यज्ञ की ज्वालाएं पहुंचने लगीं तो सब व्याकुल हो गये। पहले उन्हें लगा कि मामला केवल सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगने का है। प्रधानमंत्री ने गुरुदेव के प्रति आदर प्रकट करते हुए कहा कि देश में अब लोकतंत्र आ चुका है। सत्ता पर सबका हक है। लूट के माल में भी जो वाजिब हिस्सा बनता है उस पर समझौता हो सकता है। गुरुदेव ने इस विकृत सोच को धिक्कारते हुए हिस्सेदारी का प्रस्ताव वापस कर दिया।
प्रधानमंत्री ने स्थिति की गम्भीरता को समझा। वह समझ गया कि गुरुदेव का इरादा हिस्सेदारी नहीं रंगदारी वसूलने का है। प्रधानमंत्री स्वयं साधु स्वभाव का था और व्यर्थ के संघर्ष से बचता था। उसने पेट खराब होने का हवाला देते हुए ‘कंट्रोल रूम’ संभालने से इनकार कर दिया और मंत्रिमंडल को खुद ही कुछ जुगत लगाने को कहा।
मंत्रियों का एक दल ओढ़ी हुई विनम्रता के साथ गुरुदेव के पास गया और उनसे यज्ञ बन्द करने का निवेदन किया। गुरुदेव ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि एक समय भारत सोने की चिड़िया था जिसे वर्तमान शासन ने दरिद्र बना दिया है। बंद कमरे में मंत्रियों ने गुरुदेव के सामने सोने के पहाड़ और डॉलरों के झरनों का खाका खींचा और यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि नीतियां सही दिशा में जा रहीं हैं। उन्हें बताया गया कि हजारों साल पहले जिस प्रकार साधू नामक वैश्य की नौका में स्वर्णमुद्राएं भरी रहती थी किन्तु वह उसे लता-पत्रादि कहता था, वही स्थिति अब भी है। उन्होंने गुरुदेव को बाबा रामदेव का उदाहरण भी दिया जिनका सन्यासी होते हुए भी हजारों करोड़ रुपये का आर्थिक साम्राज्य है। तमाम तर्कों के बाद भी गुरुदेव अविचलित रहे।
अब तक गुप्तचरों द्वारा मामला राजमहिषी के पास पहुंच चुका था। उन्होंने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए गालियां देने में प्रवीण सामंत को बुलाया और गुरुदेव को समझाने के लिये कहा। सामंत ने स्वयं जाने के बजाय अपने घर पर ही पत्रकारों को बुलाया और गुरुदेव के विरुद्ध गालियों की बौछार शुरू कर दी। उसने उनकी नासमझी पर व्यंग्य करते हे कहा कि समृद्धि सदैव से सामंतों के पास ही रही है। आज भी उन सहित सभी सामंत पूरी राजसी शान-शौकत के साथ रह रहे हैं। गुरुदेव जिन भिखारियों के लिये समृद्धि की मांग कर रहे हैं उनके पास वह कभी नहीं थी। सामंत ने यह भी याद दिलाया कि वे योग के गुरु हैं और उन्हें अपने शिष्यों को कंद-मूल-फल खाकर जीवित रहने का उपदेश देना चाहिये। इसके लिये समृद्धि की कोई जरूरत नहीं।
कहा गया है कि ज्ञान जहां से भी मिले लेना चाहिये। लेकिन माया प्रभावी होने के कारण गुरुदेव ने उनके द्वारा दिये जा रहे ज्ञान की ओर से आंखें फेर लीं। नतीजा यह हुआ कि वे सामंत के उपदेश में छिपी चेतावनी को भी न समझ सके। ‘ज्ञाननामाग्रगण्य’ गुरुदेव माया को न समझ सके और नारद जैसे मोह में पड़े रहे। इस मोहावस्था में ही उन्हें लगा कि वे मनुष्य से वृक्ष बन गये हैं। दूर कहीं काली आंधी उठी है और उनकी ओर बढ़ रही है। आंधी के थपेड़े उन्हें उखाड़ डालना चाहते हैं। छोटे-छोटे तिनके जो कल तक उनके ही अंग थे आज हवा के झोंकों पर सवार होकर उन पर प्रहार कर रहे हैं। अचानक वे जागे तो देखा हजारों पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान उनकी यज्ञशाला को घेर चुके थे। युद्ध का दृश्य सामने था। देखते ही देखते यज्ञशाला का विध्वंस हो गया। घायलों की कराह और महिलाओं और बच्चों का क्रंदन गूंज रहा था। मोहावस्था समाप्त हो चुकी थी। सूरज की पहली किरण ने मायाजाल को चीर दिया था। हरिद्वार में पावन गंगा के तट पर बैठे गुरुदेव सारी स्थिति पर चिंतन कर रहे थे। रात को आयी आंधी सच में ज्ञान की आंधी थी। उनके सभी भ्रम दूर हो चुके थे। भारत दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन गया है। लोकतंत्र में जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिये सरकार चुनी जाती है। वह देश को लोककल्याणकारी शासन देती है। इस शासन में सबको समान अधिकार प्राप्त होते हैं। सबको न्याय मिलता है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी जनता के सेवक होते हैं। सत्ता पर समाज का नियंत्रण होता है आदि सभी बातों की निस्सारता का वे अनुभव कर चुके थे।
भागीरथी का जल हाथ में लेकर उन्होंने आचमन किया तो सारा विचलन समाप्त हो चुका था। उन्हें याद आयी दो हजार वर्ष पूर्व की घटना जब इसी गंगा के तट पर पाटलिपुत्र में धननन्द द्वारा आर्य चाणक्य का भरे दरबार में अपमान किया था। वे समझ गये कि मदान्ध सत्ता के मूलोच्छेद का समय आ गया है। नये संकल्प के साथ वे अपने आश्रम की ओर बढ़ चले।
यह कथा आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखी गयी थी। पुरातत्वविदों के अनुसार जिस शिलालेख पर यह कथा लिखी मिली है वह ईसा से लगभग 2011 वर्ष बाद का है। दिये गये विवरण से पता चलता है कि उस समय भारत में महिलाओं जैसा संकोची कोई पुरुष प्रधानमंत्री था। उसकी सत्ता से इतर पुरुषों की तरह दबंग एक अन्य महिला का विवरण भी मिलता है जो संभवतः मंत्रिमण्डल में न होते हुए भी सत्ता का केन्द्र थी। उसके जाति अथवा कुल-गोत्र का कोई विवरण नहीं प्राप्त होता है जबकि तत्कालीन भारत की राजनीति में जाति का उल्लेख बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था।जल ही जीवन
अवनीश सिंह
जल पर्यावरण का अभिन्न अंग है, मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। मानव स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ जल का होना नितांत आवश्यक है। जल की आवश्यकता केवल मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि उन सबको भी है, जिनमें प्राण हैं। चाहे वह पशु-पक्षी हों या फिर पेड-पौधे। पुरातन समय से ही जल की महत्ता को मानव ने जाना और समझा है। ऋग्वेद की रचनाओं में जल की स्तुति की गई है। इतिहास गवाह है कि विश्व के सभी देश विभिन्न नदियों एवं घाटियों की गोद में फले-फूले और विकसित हुए हैं।
देश की जिन नदियों में कभी पानी की निर्मल धारा बहती थी, आज वहां दुर्गध के भभके उठते रहते हैं। इन नदियों का पानी प्रदूषण के खतरे की सभी सीमाएं पार कर चुका है। भूजल स्तर के गिरने के साथ पेयजल जहरीला भी होता जा रहा है। रसातल की ओर लौट रहे इस पानी में कई तरह के खतरनाक रसायनों और खनिज तत्वों के घुलने से पीने के साफ पानी का भी टोटा हो गया है। देश के बहुत से हिस्सों में जमीन के नीचे का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। उसमें अनेक विषैले रसायन और स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक धातुएं मिल चुकी हैं।
छोटी-बड़ी कई नदियों वाले उत्तर भारत में साफ पानी की भारी किल्लत है। लोगों के स्वास्थ्य पर अब इस दूषित पानी का असर लगातार बढ़ता दिखाई दे रहा है। देश के बीस राज्यों में बहने वाली 38 प्रमुख नदियों की सफाई पर पिछले दस सालों में लगभग 26 अरब रुपये खर्च किए गए, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। इन नदियों में यमुना, गंगा, गोमती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, दामोदर, महानंदा, सतलुज जैसी बड़ी नदियां शामिल हैं। इनमें से एक-एक नदी की सफाई के लिए संबंधित राज्यों को सैकड़ों करोड़ रुपये दिए गए। न तो आवंटित रकम कम थी और न ही एक दशक का समय छोटा कहा जा सकता है। फिर भी इन नदियों का पानी स्वच्छ होने के बजाय कई जगह जहरीला हो गया। उनमें पाई जाने वाली मछलियां और अन्य जीव-जंतु भी मर गए। ये तथ्य इस बात का इशारा करते हैं कि पैसा जरूर पानी की तरह बहाया गया, पर वह निर्धारित मकसद में नहीं लगा।
ग्रामीण पेयजल आपूर्ति की हालत और भी खराब है। खासतौर से उत्तरी राज्यों में स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति का सिर्फ पांच फीसदी सरकारी योजनाओं पर निर्भर है। बाकी 95 फीसदी पेयजल के लिए लोग कुओं पर निर्भर हैं, लेकिन भूजल स्तर के नीचे खिसकने से ज्यादातर कुएं भी सूख गए हैं। उनकी जगह हैंडपंप और नलकूपों ने ले ली है। इन माध्यमों से निकल रहा पानी गुणवत्ता की दृष्टि से जहर से कम नहीं है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 85 फीसदी पेयजल का स्त्रोत भूजल है। इसके बावजूद ज्यादातर लोगों के लिए दूषित पेयजल पीना उनकी नियति बन गई है।
आज देश का एक भी विकास खण्ड भूजल की दृष्टि से सुरक्षित नहीं है। आजादी के वक्त 232 गांव संकटग्रस्त थे। आज दो लाख से ज्यादा यानी हर तीसरा गांव पानी की चुनौती से जूझ रहा हैं। देश के 70 फीसदी भूजल भंडारों पर चेतावनी की छाप साफ देखी जा सकती है। पिछले 16 वर्षों में 300 से ज्यादा जिलों के भूजल में चार मीटर से ज्यादा गिरावट दर्ज की गई है। जम्मू, हिमाचल, से लेकर सबसे ज्यादा बारिश वाले चेरापूंजी तक में पेयजल का संकट हैं। पंजाब के भी करीब 40 से अधिक ब्लॉक डार्क जोन हैं। बेचने के लिए पानी के दोहन ने दिल्ली में अरावली के आसपास जलस्तर 25 से 50 मीटर गिरा दिया है। राजस्थान के अलवर-जयपुर में एक दशक पहले ही अति दोहन वाले उद्योगों को प्रतिबंधित कर देना पड़ा था। उत्तर प्रदेश के 820 में से 461 ब्लॉकों का पानी उतर रहा है। मध्य प्रदेश के शहरों का हाल तो बेहाल है ही, सुदूर बसे कस्बों में भी आज 600-700 फीट गहरे नलकूप हैं। …सब जगह पानी का संकट है।
नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने की कई योजनाएं चल रही हैं, लेकिन दो हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी गंगा मैली की मैली ही है। हरिद्वार से हुगली तक उसका पानी आचमन लायक भी नहीं रहा। दूसरी नदियों का हाल तो और भी बुरा है। सरकारी सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार भूजल में रासायनिक प्रदूषण के अलावा स्वास्थ्य के लिए घातक खनिज तत्व घुले हैं। भूजल में ये तत्व प्राकृतिक रूप से मिले हुए हैं। रासायनिक उर्वरक और सीवरेज से भूजल में नाइट्रेट घुल रहा है। पानी में इसकी मात्रा लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा प्राकृतिक रूप से घुली है। इसे पीने के लायक स्वच्छ बनाना बहुत सरल नहीं है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस प्रदूषण को रोकने या खत्म करने के लिए भारी भरकम बजट वाली योजनाएं बनी हैं। इन योजनाओं पर अरबों रुपये भी खर्च भी किए जा चुके हैं, लेकिन सफाई के मामले में इसकी हालत ज्यों की त्यों है। यह देखकर अचरज होता है कि आखिर हमारा सरकारी तंत्र करता क्या है? इस बड़ी चुनौती से निपटने के लिए बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी के संचयन की जरूरत है। सरकारी एजेंसियां भी मानती हैं कि खतरनाक तत्वों को पानी से अलग करने की कारगर तकनीक का देश में अभाव है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश की 7067 बस्तियों के निवासी आर्सेनिक और 29070 बस्तियों के लोग फ्लोराइड युक्त भूजल पीने को मजबूर हैं। एक लाख से ज्यादा बस्तियों के लोग लौह तत्व घुले भूजल पर गुजारा कर रहे हैं। इन बस्तियों के लोगों के पास पेयजल का कोई और विकल्प नहीं है।
जेठ के इस महीने में सब तरफ पानी की ही चर्चा। पानी-पानी चिल्लाते लोग! पानी के लिए झगडा-मारपीट! लेकिन पानी है कहां? सूखते चेहरे, सूखती नदियां-कुएं-तालाब-झीलें! चटकती धरती और पानी की टूटती परंपराएं व कानून! सब कुछ जैसे बेपानी होने को लालायित है। यह है महाशक्ति बनने का दंभ भरता भारत! पर ताज्जुब है कि आज अपनी इस नाकामी पर कोई भी पानी-पानी होता नजर नहीं आता; न समाज, न सरकार, न नेता और न ही अफसर।
27 जुलाई को भ्रष्टाचार के विरूद्ध सडकों पर उतरेंगे दस लाख छात्र
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लडाई को तेज करके हुए सडक पर उतरने की योजना बना रही है। राष्ट्रीय महामंत्री श्री उमेश दत्त ने कहा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश की जनता में आक्रोश है। इसके बावजूद भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी केन्द्र की कांग्रेसनीत यूपीए सरकार इसके खिलाफ लडने का ढोंग कर जनता को दिग्भ्रमित कर रही है। विद्यार्थी परिषद इस भ्रष्टतम सरकार को उखाड फेकने के लिये जन आंदोलन खडा करेगी। जिसके लिये राजधानी में पिछले दिनों ‘यूथ अगेंस्ट करेप्शन’ नाम के फोरम की स्थापना भी की गयी।
वृंदावन के वात्सल्य ग्राम में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद की बैठक में उन्होंने कहा कि अभाविप देश में शैक्षिक मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय, सामाजिक एवं सुरक्षा से जुडे मुद्दों पर आंदोलन करती रही है, चाहे वह 1976 में गुजरात के मोरबी का छात्र आंदोलन रहा हो या आपातकाल के विरूद्ध जे. पी. आंदोलन विद्यार्थी परिषद ने सदैव अपनी भूमिका निभायी है।
श्री उमेश दत्त ने कहा कि आज आये दिन हो रहे बडे-बडे घोटालों की परतें खुलने के बाद भारत अब भ्रष्टाचार में सुपर पावर बन गया है। जिससे देश की छवि को गहरा धक्का लगा है। दुनियां भर में भारत की पहचान यहां की संस्कृत, सभ्यता और ज्ञान के कारण होती थी, लेकिन इन घोटालों के कारण आज दुनिया के लोग भारत की तरफ हैरानी भरी नजरों से देख रहे हैं।
राष्ट्रीय महामंत्री श्री उमेश दत्त ने कहा कि भ्रष्टाचाचार के खिलाफ जारी इस मुहिम को निर्णायक मोड देते हुए आगामी 27 जुलाई को दस लाख छात्र अभाविप के नेतृत्व में देश भर के विभिन्न जिलों में सडकों पर उतरकर प्रदर्शन करेंगे। महाविद्यालय परिसरों में इस अभियान के द्वारा छात्रों के बीच जागरण करते हुए दिनांक 9 अगस्त के ऐतिहासिक दिन से ‘भ्रष्टाचारियों गद्दी छोडो’ इस नारे के साथ अभाविप अपने आंदोलन को प्रखर बनाते हुये अपनी आंदोलनात्मक गतिविधियां तीव्र करेगी। साथ ही स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त के दिन अभाविप देश भर में जगह-जगह तिरंगा यात्रा करते हुए भारत को भ्रष्टाचार से स्वाधीन कराने का संकल्प लेगी।
अभाविप की राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद की बैठक सम्पन्न
वृंदावन के वात्सल्य ग्राम में 26-29 मई तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद की बैठक संपन्न हुई। भ्रष्टाचार के विरुद्ध नागरिकों के मन में उपज रहे क्षोभ को संबोधित करते हुए परिषद ने इसके विरुद्ध लोकतांत्रिक पद्धति से सशक्त संघर्ष छेड़ने का आह्वान देश के छात्र-युवाओं से किया।
बैठक का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मिलिन्द मराठे व राष्ट्रीय महामंत्री श्री उमेश दत्त ने कहा कि इस सत्र में अभाविप की सर्वोच्च प्राथमिकता भ्रष्टाचार के खिलाफ युवाओं को संगठित कर भ्रष्टाचार करने वालों और इन भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय देने वालों के खिलाफ एक जन आंदोलन खड़ा करना है।
अपने संबोधन में प्रो. मिलिन्द मराठे ने कहा कि यह देश की सुरक्षा और प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ विषय है। इसलिये भ्रष्टाचार के खात्मे के लिये पहले इसकी जड़ तक पहुंचना होगा। उन्होंने कहा कि सिर्फ सत्ता परिवर्तन ही अभाविप का लक्ष्य नहीं है, यह लड़ाई हम व्यवस्था परिवर्तन तक ले जाना चाहते हैं। यह कार्य जनआंदोलन के दबाव के बिना संभव नहीं है। यूथ अगेन्स्ट करप्शन की मुहिम इसी जन आंदोलन का हिस्सा है जिसमें देश के प्रबुद्ध लोगों के साथ आम विद्यार्थी और युवाओं को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जोड़ा जायेगा।
भ्रष्टाचार, देश की वर्तमान परिस्थिति, भ्रष्ट केन्द्र सरकार सत्ता छोडो तथा शैक्षिक शुल्क सर्वेक्षण के रिपोर्ट के संबंध में कुल चार प्रस्ताव पारित किये गये।
संगठनात्मक विस्तार पर चर्चा करते हुए राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री सुनील आंबेकर ने वर्तमान शैक्षिक सत्र के संगठनात्मक आंकड़ों को रखते हुए समीक्षात्मक चिंतन की बात कही। बीते शैक्षिक सत्र में 18 लाख 34 हजार सदस्य संख्या को बढ़ा कर अगले शैक्षिक वर्ष में 20 लाख से अधिक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया।
सत्याग्रह के दमन से नहीं खत्म होंगे सवाल
दिल्ली में बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों के साथ जो कुछ हुआ, वही दरअसल हमारी राजसत्ताओं का असली चेहरा है। उन्हें सार्थक सवालों पर प्रतिरोध नहीं भाते। अहिंसा और सत्याग्रह को वे भुला चुके हैं। उनका आर्दश ओबामा का लोकतंत्र है जो हर विरोधी आवाज को सीमापार भी जाकर कुचल सकता है। दिल्ली की ये बेदिली आज की नहीं है। आजादी के बाद हम सबने ऐसे दृश्य अनेक बार देखे हैं। किंतु दिल्ली ऐसी ही है और उसके सुधरने की कोई राह फिलहाल नजर नहीं आती। कल्पना कीजिए जो सरकारें इतने कैमरों के सामने इतनी हिंसक, अमानवीय और बर्बर हो सकती हैं, वे बिना कैमरों वाले समय में कैसी रही होंगी। ऐसा लगता है कि आजादी, हमने अपने बर्बर राजनीतिक, प्रशासनिक तंत्र और प्रभु वर्गों के लिए पायी है। आप देखें कि बाबा रामदेव जब तक योग सिखाते और दवाईयां बेचते और संपत्तियां खड़ी करते रहे,उनसे किसी को परेशानी नहीं हुयी। बल्कि ऐसे बाबा और प्रवचनकार जो हमारे समय के सवालों से मुठभेड़ करने के बजाए योग, तप, दान, प्रवचन में जनता को उलझाए रखते हैं- सत्ताओं को बहुत भाते हैं। देश के ऐसे मायावी संतों, प्रवचनकारों से राजनेताओं और प्रभुवर्गों की गलबहियां हम रोज देखते हैं। आप देखें तो पिछले दस सालों में किसी दिग्विजय सिंह को बाबा रामदेव से कोई परेशानी नहीं हुयी और अब वही उन्हें ठग कह रहे हैं। वे ठग तब भी रहे होंगें जब चार मंत्री दिल्ली में उनकी आगवानी कर रहे थे। किंतु सत्ता आपसे तब तक सहज रहती है, जब तक आप उसके मानकों पर खरें हों और वह आपका इस्तेमाल कर सकती हो। सत्ताओं को नहीं भाते कठिन सवालः निश्चित ही बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं वे कठिन सवाल हैं। हमारी सत्ताओं और प्रभु वर्गों को ये सवाल नहीं भाते। दिल्ली के भद्रलोक में यह गंवार, अंग्रेजी न जानने वाला गेरूआ वस्त्र धारी कहां से आ गया? इसलिए दिल्ली पुलिस को बाबा का आगे से दिल्ली आना पसंद नहीं है। उनके समर्थकों को ऐसा सबक सिखाओ कि वे दिल्ली का रास्ता भूल जाएं। किंतु ध्यान रहे यह लोकतंत्र है। यहां जनता के पास पल-पल का हिसाब है। यह साधारण नहीं है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को नजरंदाज कर पाना उस मीडिया के लिए भी मुश्किल नजर आया, जो लाफ्टर शो और वीआईपीज की हरकतें दिखाकर आनंदित होता रहता है। बाबा रामदेव के सवाल दरअसल देश के जनमानस में अरसे से गूंजते हुए सवाल हैं। ये सवाल असुविधाजनक भी हैं। क्योंकि वे भाषा का भी सवाल उठा रहे हैं। हिंदी और स्थानीय भाषाओं को महत्व देने की बात कर रहे हैं। जबकि हमारी सरकार का ताजा फैसला लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सर्विसेज की परीक्षा में अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य करने का है। यानि भारतीय भाषाओं के जानकारों के लिए आईएएस बनने का रास्ता बंद करने की तैयारी है। ऐसे कठिन समय में बाबा दिल्ली आते हैं। सरकार हिल जाती है क्योंकि सरकार के मन में कहीं न कहीं एक अज्ञात भय है। यह असुरक्षा ही कपिल सिब्बल से वह पत्र लीक करवाती है ताकि बाबा की विश्वसनीयता खंडित हो। उन पर अविश्वास हो। क्योंकि राजनेताओं को विश्वसनीयता के मामले में रामदेव और अन्ना हजारे मीलों पीछे छोड़ चुके हैं। आप याद करें इसी तरह की विश्वसनीयता खराब करने की कोशिश में सरकार से जुड़े कुछ लोग शांति भूषण के पीछे पड़ गए थे। संतोष हेगड़े पर सवाल खड़े किए गए, क्योंकि उन्हें अन्ना जैसे निर्दोष व्यक्ति में कुछ ढूंढने से भी नहीं मिला। लेकिन निशाने पर तो अन्ना और उनकी विश्वसनीयता ही थी। शायद इसीलिए अन्ना हजारे ने सत्याग्रह शुरू करने से पहले रामदेव को सचेत किया था कि सरकार बहुत धोखेबाज है उससे बचकर रहना। काश रामदेव इस सलाह में छिपी हुयी चेतावनी को ठीक से समझ पाते तो उनके सहयोगी बालकृष्ण होटल में मंत्रियों के कहने पर वह पत्र देकर नहीं आते। जिस पत्र के सहारे बाबा रामदेव की तपस्या भंग करने की कोशिश कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेस में की। बिगड़ रहा है कांग्रेस का चेहराः बाबा रामदेव के सत्याग्रह आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने जिस तरह कुचला उसकी कोई भी आर्दश लोकतंत्र इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और घरना देने की सबको आजादी है। दिल्ली में जुटे सत्याग्रहियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि उन पर इस तरह आधी रात में लाठियां बरसाई जाती या आँसू गैस के गोले छोड़ जाते। किंतु सरकारों का अपना चिंतन होता है। वे अपने तरीके से काम करती हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बर्बर कार्रवाई से केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी प्रतिष्ठा गिरी है। एक तरफ सरकार के मंत्री लगातार बाबा रामदेव से चर्चा करते हैं और एक बिंदु पर सहमति भी बन जाती है। संभव था कि सारा कुछ आसानी से निपट जाता किंतु ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि सरकार को यह दमनात्मक रवैया अपनाना पड़ा। इससे बाबा रामदेव का कुछ नुकसान हुआ यह सोचना गलत है। कांग्रेस ने जरूर अपना जनविरोधी और भ्रष्टाचार समर्थक चेहरा बना लिया है। क्योंकि आम जनता बड़ी बातें और अंदरखाने की राजनीति नहीं समझती। उसे सिर्फ इतना पता है कि बाबा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह सरकार को पसंद नहीं है। इसलिए उसने ऐसी दमनात्मक कार्रवाई की। जाहिर तौर पर इस प्रकार का संदेश कहीं से भी कांग्रेस के लिए शुभ नहीं है। बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं, उसको लेकर उन्होंने एक लंबी तैयारी की है। पूरे देश में सतत प्रवास करते हुए और अपने योग शिविरों के माध्यम से उन्होंने लगातार इस विषय को जनता के सामने रखा है। इसके चलते यह विषय जनमन के बीच चर्चित हो चुका है। भ्रष्टाचार का विषय आज एक केंद्रीय विषय बन चुका है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे दो नायकों ने इस सवाल को आज जन-जन का विषय बना दिया है। आम जनता स्वयं बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं से उसे घोर निराशा है। ऐसे कठिन समय में जनता को यह लगने लगा है कि हमारा जनतंत्र बेमानी हो चुका है। यह स्थिति खतरनाक है। क्योंकि यह जनतंत्र, हमारे आजादी के सिपाहियों ने बहुत संर्धष से अर्जित किया है। उसके प्रति अविश्वास पैदा होना या जनता के मन में निराशा की भावनाएं पैदा होना बहुत खतरनाक है। अन्ना या रामदेव के पास खोने को क्या हैः बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसी आवाजों को दबाकर हम अपने लोकतंत्र का ही गला घोंट रहे हैं। आज जनतंत्र और उसके मूल्यों को बचाना बहुत जरूरी है। जनता के विश्वास और दरकते भरोसे को बचाना बहुत जरूरी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे राजनीतिक दल अगर ईमानदार प्रयास कर रहे होते तो ऐसे आंदोलनों की आवश्यक्ता भी क्या थी? सरकार कुछ भी सोचे किंतु आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जनता के सामने एक आशा की किरण बनकर उभरे हैं। इन नायकों की हार दरअसल देश के आम आदमी की हार होगी। केंद्र की सरकार को ईमानदार प्रयास करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हुए दिखना होगा। क्योंकि जनतंत्र में जनविश्वास से ही सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। यह बात बहुत साफ है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के पास खोने के लिए कुछ नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी रूप में सत्ता में नहीं हैं। जबकि कांग्रेस के पास एक सत्ता है और उसकी परीक्षा जनता की अदालत में होनी तय है, क्या ऐसे प्रसंगों से कांग्रेस जनता का भरोसा नहीं खो रही है, यह एक लाख टके का सवाल है। आज भले ही केंद्र की सरकार दिल्ली में रामलीला मैदान की सफाई करके खुद को महावीर साबित कर ले किंतु यह आंदोलन और उससे उठे सवाल खत्म नहीं होते। वे अब जनता के बीच हैं। देश में बहस चल पड़ी है और इससे उठने वाली आंच में सरकार को असहजता जरूर महसूस होगी। केंद्र की सरकार को यह समझना होगा कि चाहे-अनचाहे उसने अपना चेहरा ऐसा बना लिया है जैसे वह भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संरक्षक हो। क्योंकि एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी अगर हमारी सत्ताएं नहीं सह पा रही हैं तो सवाल यह भी उठता क्या उन्हें हिंसा की ही भाषा समझ में आती है ? दिल्ली में अलीशाह गिलानी और अरूँधती राय जैसी देशतोड़क ताकतों के भारतविरोधी बयानों पर जिस दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के हाथ एक मामला दर्ज करने में कांपते हों, जो अफजल गुरू की फांसी की फाईलों को महीनों दबाकर रखती हो और आतंकियों व अतिवादियों से हर तरह के समझौतों को आतुर हो, यहां तक कि वह देशतोड़क नक्सलियों से भी संवाद को तैयार हो- वही सरकार एक अहिंसक समूह के प्रति कितना बर्बर व्यवहार करती है। बाबा रामदेव इस मुकाम पर हारे नहीं हैं, उन्होंने इस आंदोलन के बहाने हमारी सत्ताओं के एक जनविरोधी और दमनकारी चेहरे को सामने रख दिया है। सत्ताएं ऐसी ही होती हैं और इसलिए समाज को एकजुट होकर एक सामाजिक दंडशक्ति के रूप में काम करना होगा। यह तय मानिए कि यह आखिरी संघर्ष है, इस बार अगर समाज हारता है तो हमें एक लंबी गुलामी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह गुलामी सिर्फ आर्थिक नहीं होगी, भाषा की भी होगी, अभिव्यक्ति की होगी और सांस लेने की भी होगी। रामदेव के सामने भी रास्ता बहुत सहज नहीं है,क्योंकि वे अन्ना हजारे नहीं हैं। सरकार हर तरह से उनके अभियान और उनके संस्थानों को कुचलने की कोशिश करेगी। क्योंकि बदला लेना सत्ता का चरित्र होता है। इस खतरे के बावजूद अगर वे अपनी सच्चाई के साथ खड़े रहते हैं तो देश की जनता उनके साथ खड़ी रहेगी, इसमें संदेह नहीं है। बाबा रामदेव ने अपनी संवाद और संचार की शैली से लोगों को प्रभावित किया है। खासकर हिंदुस्तान के मध्यवर्ग में उनको लेकर दीवानगी है और अब इस दीवानगी को, योग से हठयोग की ओर ले जाकर उन्होंने एक नया रास्ता पकड़ा है। यह रास्ता कठिन भी है और उनकी असली परीक्षा दरअसल इसी मार्ग पर होनी हैं। देखना है कि बाबा इस कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपने साथ कितने लोगों को चला पाते हैं? (लेखक : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)