डा0 नागेश ठाकुर
यदि हमें अपने वर्तमान समय को संक्षेप में परिभाषित करना हो तो कहेंगे कि हम वैश्वीकरण, उदारीकरण और भूण्डलीकरण के परिणामस्वरूप उभरते विश्व-ग्राम में रह रहे है । आज पूरा विश्व एक विशाल बाजार बन गया है जहां हर राष्ट्र अपना सामान बेचने के लिए समान घरातल पर प्रतियोगिता में लगा है। यह युग उदारीकरण का इसी अर्थ में है क्योंकि राष्ट्रों की भौगोलिक सीमाओं के कारण आर्थिक प्रतिबन्धों को समाप्त अथवा उदार कर दिया गया है, तटकर अथवा आयातकर कम से कम किए जा रहे हैं। यह युग विश्व-ग्राम इस अर्थ में बन गया है कि आज न केवल दूरियां सिमट गई है, आवागमन के साधन व्यापक एवं सस्ते हो गए हैं बल्कि सूचनाओं का आदान-प्रदान सस्ता एवं सर्व-सुलभ हो गया है। आज दूरदर्शन, अन्तर्जाल (इंटरनेट) तथा ई-मेल आदि के द्वारा हम हर क्षण एक दूसरे से जुड़े रह सकते हैं तथा वीडियो- कान्फ्रेसिंग आदि के माध्यम से साक्षात बातचीत भी कर सकते हैं। हम तेजी से बदलते, निर्मम प्रतियोगिता के युग में जी रहे हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसे युग में ‘स्वभाषा’ और ‘स्वदेश’ की बात करना क्या उचित होगा ? क्या राष्ट्रवाद की बात करना इस अंतर्राष्ट्रवाद के युग में प्रासंगिक ( त्मसमअंदज) है ?
मेरा यह मानना है कि आज अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपने राष्ट्र तथा अपनी जातीय पहचान को समझना जितना आज जरूरी हे उतना पहले के किसी युग में नहीं था। पहला कारण तो यह है कि सूचना-प्रोद्योगिकी के विकास से जहां ज्ञान के भण्डार खुले हैं, सूचनाओं का आदान प्रदान तीव्र हुआ है वहीं पर हर राष्ट्र के सामने अपनी अस्मिता (प्कमदजपजल) एवं अस्तित्व (म्गपेजमदबम) को बचाने की चुनौती भी आई है अतीत में सांस्कृतिक आदान-प्रदान सीमित स्तर पर होता था परन्तु आज दूरदर्शन और अन्तर्जाल के द्वारा विश्वभर की संस्कृतियां अपने टेलीविजन के पर्दे पर अथवा कम्प्यूटर पर नृत्य करती दिखाई पड़ती है। विश्व की संस्कृतियां आज एक दूसरे के सामने ही नहीं आई बल्कि एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास भी कर हरी है। जो संस्कृति विश्व पर हावी होगी, उसी का माल बिकेगा, वही समृद्ध होगी। यदि पश्चिमी संस्कृति प्रभावी होगी तो दीवाली, होली पर लडडू, बर्फी, जलेबी अथवा मठरी की जगह चौकलेट, बर्गर, पीजा, केक अथवा तरह-तरह के बिस्कुट ही भेंट में दिए जाने लगेगें और घर-घर में उनका प्रचार होगा।
सदियों से जिन मिठाईयों का अविष्कार हमारी संस्कृति ने किया वह समाप्त हो जाऐंगी। गुणवत्ता अथवा उपयोगिता में कम होने के कारण यह नष्ट नहीं होगी, सांस्कृतिक पराजय के कारण होगी । यह भी हो सकता है कि दीवाली, होली जैसे त्योहार हम भूल जाएं तथा हम केवल वेलेंनटाईन-डे ही मनाते रह जाऐं। आज की आर्थिक चुनौतियां हर राष्ट्र को निर्ममतापूर्वक दूसरे राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के लिए उतेजित कर रही है ताकि उसके आर्थिक हित सुरक्षित हो सकें। आज यह स्पष्ट है कि तकनीकी, आर्थिक और सैनिक वर्चस्व के चलते पश्चिम पूरे विश्व पर हावी होने जा रहा है। जिस आर्थिक उदारीकरण में विश्व-कल्याण खोजा जा रहा है वह ‘आर्थिक साम्राजयवाद’ है जो कि केवल पश्चिम के हितों की रक्षा करने के लिए ही खड़ा किया गया है। आर्थर डंकल के डंकल प्रस्तावों पर खड़ा वैश्वीरकण वास्तव में पश्चिमीकरण है। ऐसी स्थिति में विकासशील राष्ट्रों के सामने अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने, उसे दृढ़ करने के सिवाए उपाये क्या है? यह सांस्कृतिक पहचान ही हमे आर्थिक रूप से सही दिशा में विकास का मार्ग दिखाएगी। आज भारत के लिए वह निर्णायक क्षण आ गया है कि वह अपनी पहचान केवल ‘मेरा भारत महान’ के नारे से ही न दे बल्कि हमारी महानता का आधार क्या रहा है, क्या हो सकता है उसकी भी खोज करें और जन-जन को उससे जोड़ें। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के अनुसार भारत को यदि अपने को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा करना है तो अपनी पहचान को स्थापित करना ही होगा।
किसी भी राष्ट्र की उन्नति या विकसित होना उस राष्ट्र के प्रति व्यक्ति के जीवन स्तर एवं जीवन मुल्यों के आधार पर आंकी जा सकती है। ऐसा राष्ट्र जो आत्मनिर्भर हो, जन-जन खुशहाल हो, जहां उसकी संस्कृति सुरक्षित हा,े ऐसा राष्ट्र ही वास्तव में विकसित राष्ट्र होता है। राष्ट्रीय स्वाभिमान शुन्य समाज नष्ट हो जाता है। स्वाभिमान तब पनपता है जब स्व पर अभिमान हो जैसे स्वभाषा, स्वदेश इत्यादि। स्वभाषा से ही स्वदेशी एवं स्वदेश प्रेम की भावना जुड़ी होती हैं क्योंक भाषा ही चिंतन का माध्यम होती है। स्वभाषा पर तभी अभिमान हो सकता है जब वह भाषा विश्व में सम्मनित हो, केवल बोलने वाली भाषा सम्मान प्राप्त नही कर सकती केवल यही कारण है कि फ्रांसीसी एवं जर्मन भाषा को बोलने व समझने वालों की संख्या लगभग 2 प्रतिशत होने के बावजूद वे सम्मानित हैं और विश्व में चीनी भाषा के बाद हिन्दी बोलने व समझने वालों की संख्या होने के बावजूद भी हिन्दी भाषा सम्मानित नहीं है। राष्ट्र का स्वाभिमान जहां राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय प्रभुसता के प्रतीक संविधान, स्वतन्त्र विदेश नीति तथा आर्थिक आत्म निर्भरता में देखा जाता है। वहीं राष्ट्रीय भाषा के विकास में भी प्रकट होता है। अपनी भाषा के बिना राष्ट्र गंूगा है। भारत जैसे राष्ट्र में जहां 179 भाषाएं, 544 बोलियां है और संविधान द्वारा स्वीकृत 21 भाषाएं भी है वहां पर एक विदेशी भाषा में अध्ययन- अध्यापन, सरकारी कामकाज, न्यायालय तथा संसद का काम होना अपमानजनक ही कहा जाएगा। ‘स्वभाषा’ के बिना कैसा ‘स्वाभिमान ? जिसे अपनी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा में बोलने और व्यवहार करने में शर्म आती है, गर्व का अनुभव नहीं होता वह स्वाभिमानी कैसे हो सकता है? स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए स्वभाषा को सम्मान देना उतना ही आवश्यक है जितना जीने के लिए सांस लेना।
आज विश्व का कोई ऐसा विकासित अथवा प्रगतिशाील राष्ट्र नहीं जिसकी अपनी भाषा न हो और जिसे शिक्षा का माध्यम न बनाया गया है। दुर्भाग्य से इस देश में अंग्रेजों के समय हमारी भाषाओं को नष्ट करने का षडयन्त्र रचा गया। लोर्ड मैकाले ने जब पूरे भारत का भ्रमण किया और देखा कि भारत में चारों ओर समृद्धि हैं, यहां के लोग खुशहाल हैं समाज का जीवन उच्च स्तर का है तथा अनेकता होते हुए भी यहां का समाज एक आत्मा में बंधा है तो उसने निष्कर्ष निकाला कि ऐसे देश में लम्बे समय तक अंग्रेज शासन नहीं कर सकते। उसने अंग्रेज सरकार को ऐक प्रारूप बनाकर दिया और उस प्रारूप मे कहा कि अगर भारत में अंग्रेेजों को लंबे समय तक शासन करना है तो यहां की शिक्षा पद्धति को नष्ट करके ऐसी शिक्षा पद्धती लागू करनी होगी जिसे पढ़ने से यहां की अगली आने वाली पीढ़ियां खून से तो भारतीय हों मगर चिंतन के स्तर पर अंग्रेजों के हित को सोचने वाली हो। ऐसी पीढ़ी जो अपनी सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं जीवन पद्धति के प्रति हीनता की भावना रखे और पश्चिमी सभ्यता को महान बनाने का कार्य पूरे भारतवर्ष में करे। इस शिक्षा नीति का सबसे खतरनाक पहलू था सम्पूर्ण माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा का माध्यम, अंग्रेजी को बनाना। केवल आठवीं तक ही मातृभाषा या प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा दे सकती थी। मैकाले मानस पुत्रों ने स्वतंत्र भारत में भी उसके बिछाए जाल को मजबूत किया तथा अंगेजी माध्यम के स्कूलों का जाल बिछा दिया है।
यह मनोविज्ञानिक सत्य है कि मौलिक चिंतन स्वभाषा में ही प्राप्त करने से सम्भव हैं। मानव जिस भाषा में सपने देखता है उसी भाषा में मौलिक चिंतन भी संभव है। सपने स्वभाषा में ही देखे जाते हैं और भौतिक चिंतन की उपज यानि अविष्कार प्रथमतः एक सपना ही होता है । दैनिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली भाषा और पढ़ने लिखने वाली भाषा अलग होने से अभिव्यक्ति प्रभावित होती है। हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की लिपी वैज्ञानिक है और अग्रेजी अवैज्ञानिक।
स्वभाषा में शिक्षा और शोध का कार्य किया जाना क्यों आवश्यक है इसे विस्तार से समझना आवश्यक है। माता और मातृभूमि के पश्चात यदि किसी का स्थान है तो वह मातृभाषा ही है। बच्चा मातृभाषा को तब से सीखने लगता है जब से वह अपनी इन्द्रियों द्वारा बाहरी संसार को जानने लगता है। अनुकरण से मातृभाषा का शिक्षण प्रारम्भ होता है तथा निरन्तर पठन-पाठन और अभ्यास से पुष्ट होता है। मातृभाषा का ज्ञान केवल अक्षर ज्ञान पर आधारित नहीं होता वह तो मां की लोरी और दूध के साथ बच्चे को प्राप्त हो जाता है। मातृभाषा में शिक्षण इस लिए जरूरी है क्योंकि वह संस्कार और परिष्कार की भाषा भी रहती है। भाषा का संस्कृति से गहरा सम्बन्ध रहता हैं। यदि मातृभाषा में शिक्षण होगा तो भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिकता, शुचिता, संयम, परोपकार तथा त्याग-भावना सहज ही बालक को मिलेंगे। यदि अंग्रजी में शिक्षा प्रारम्भ होगी तो भौतिकवादी चिंतन से जुड़े खान-पान, पहरावे, विरोधी को मिटाने और अपने स्वार्थ को बचाने के भाव सहज ही मिलेंगे। हर भाषा एक निश्चित संस्कृति की उपज होती है, इसलिए जब हम कोई भाषा लिखते है और उसका साहित्य पढ़ते है तो निश्चित रूप से उसकी संस्कृति से भी जुड़ते है उसे आत्मसात करते हैं। यदि हम चाहते हैं कि बच्चे ’मेरा भारत महान’ का नारा ही न लगाएं, इसके अर्थ को भी समझे तो जरूरी है कि शिक्षा का माध्यम अपनी भाषाएं हो। अपनी संस्कृति को अपनाए बिना, उससे जुड़े बिना कोई स्वाभिमानी नहीं हो सकता। किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र की पहचान उसकी संस्कृति ही हुआ करती है। अंग्रेजों ने सीधे हमारी संस्कृति ही पर प्रहार न करके इसे नष्ट करने के लिए, नीचा दिखाने के लिए, हमारी भाषाओं को नष्ट करने का रास्ता चुना। 18वीं शताब्दी तक अंग्रेजों के आने से पहले सारी शिक्षा भारतीय भाषाओं में थी।
स्वभाषा में शिक्षा और शोध पर जोर देना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि बच्चे की प्रतिभा का विकास, मौलिक चिन्तन का विकास, अपनी भाषा में ही संभव है। वैज्ञानिक दृष्टि से सभी उन्नत राष्ट्र चाहे जापान हो या रूस, अमेरिका हो या जर्मर्नी इंग्लैंड अथवा फ्रांस, सभी मातृभाषा में शिक्षा देते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भी जब तक भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा था तब हमारे देश ने मेघनाथ साहा, जगदीश चंद्र बसु एवं सी0वी0 रमन जैसे महान वैज्ञानिको को जन्म दिया है। मातृभाषा या स्वभाषा में जब बच्चा पढ़ना प्रारम्भ करता है तो वह घर-परिवार से असंख्य संकल्पनाएं सीख कर आता है उसे केवल वर्णमाला सीख कर उससे लिखना ही सीखना होता है। बच्चा ’रोटी’ शब्द जानता है, स्कूल में उसे ’रोटी’ वर्णमाला सीखकर लिखने का अभ्यास ही करना होता है। उसे समझाना नहीं पड़ता कि रोटी क्या है। यदि ’ब्रेड’ बोलेंगे तो उसे पहले वर्णमाला सिखाएंगे, फिर ब्रेड क्या है यह बताएंगे और फिर दोनों को जोड़कर बच्चा सीखेगा कि ब्रेड किसे कहते हैं। यदि ग्रामीण परिवेश के बच्चे के सामने ’डबल रोटी’ पड़ी होगी तो उसे समझ नहीं आएगा कि थाली में पड़ी तवे की रोटी यदि रोटी है तो फिर ’डबल रोटी’ या ब्रेड क्या है। कहने का भाव यह है कि विदेशी भाषा में वस्तु की संकल्पना और उसको व्यक्त करने वाला प्रतीक एक साथ सिखना पड़ता है, जिससे बच्चे के मस्तिष्क पर अतिरिक्त दबाब पड़ता है और वह रट्टेबाजी की ओर अग्रसर होता है।
जो शक्ति मौलिक चिन्तन में लगनी थी वह शब्द रटने में व्यय होती है जबकि मातृभाषा के अधिकांश शब्द बच्चा सामाजिक व्यवहार में सीख जाता है और शब्दों में छिपी संकल्पना से भी परिचित होता है, उसे केवल वर्णमाला ही सीखनी होती है। विदेशी भाषा के पक्षधर कहते हैं कि अंग्रेजी पढ़कर बच्चा विश्वभर में घूम सकता है, बाहर का ज्ञान अर्जित कर सकता है परन्तु हमारा मानना है कि जिसका मौलिक चिन्तन अवरूद्ध है वह बाहर के ज्ञान का भी सीमित लाभ ही उठा पाएगा। गांधी जी ने कहा था कि अंग्रेजी भले ही बाहरी विश्व को देखने की खिड़की हो परन्तु अपने घर में जाने के लिए तो दरवाजा अर्थात स्वभाषा का ही प्रयोग होना चाहिए। जब शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा को बनाते हैं और बच्चे को अपनी भाषा से अपरिचित रखते हैं तो उसकी हालत उस व्यक्ति की सी होती है जो कि अपने घर में खिड़की से घुसने के लिए विवश है। अब आप जानते हैं कि खिड़कियों से घर में घुसने वालों को क्या कहा जाता है।
वैज्ञानिक शोध को मुलतः दो भागांे में बांटा जा सकता है। मौलिक शोध एवं अनुप्रयुक्त शोध। मौलिक शोध प्राकृतिक नियमों पर आधारित होता है तथा अनुप्रयुक्त शोध देश विशेष की समाज व्यवस्था, जलवायु, पर्यावरण एवं संसाधनों पर आधारित होता है। मौलिक शोध सभी देशों के लिए सम्मान होता है तथा उससे नियमों या सिद्धांतों का पता लगता है जैसे गुरूत्वाकर्षण का नियम। इन नियमों का अनुप्रयोग करते ही धरती से जुड़ा शोध होता है जिससे देश विशेष के अनुकुल प्रद्योगिकी का विकास होता है। शोध चाहे मौलिक हो या अनुप्रयुक्त पहली आवश्यकता है मौलिक चिंतन। मौलिक चिंतन के बिना कोई भी व्यक्ति सफल वैज्ञानिक या अच्छा शोधकर्ता नहीं बन सकता। दूसरी आवश्यकता है शोध लेखन के लिए भाषा पर अधिकार। व्यक्ति कितना भी चिंतन कर ले यदि उसका भाषा पर अधिकार नहीं है तो वह व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त नहीं कर सकता। ऐसे में वह अपने शोध की जानकारी दूसरों को नहीं प्रदान कर सकता।
तीसरी महत्वपूर्ण आवश्यकता है कि देश की मूलभूत मान्यताओं एवं आवश्यकताओं को गहराई से समझा जाए तथा उसके परिवेश से परिचित हुआ जाए। भारत की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या गांव में हैं अतः भारत से जुड़ने के लिए अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़ना आवश्यक हैं। विज्ञान के क्षेत्र में भारत का स्वर्णकाल वह समय था जब हमारे देश मे स्वभाषा का प्रचार था और वही देशभर में पठन-पाठन और चिन्तन-मनन की प्रमुख भाषा थी। हमारी सारी मौलिक उपलब्धियां चाहे वह ज्योतिष में हो या बीज गणित में, शल्य-चिकित्सा में हो या आयुर्वेद में, रसायन शास्त्र में हो या भौतिक शास्त्र में उसी समय की है। दर्शन, साहित्य और आध्यात्म में ही नहीं कलाओं में भी चर्म उत्कर्ष उसी समय हुआ। मध्यकाल तक आते-आते भारतीय भाषाओं का भी ह्रास हुआ और भारतीय वैज्ञानिक चिन्तन का भी। आज भी हमारी वैज्ञानिक उन्नति मौलिक चिन्तन पर कम तथा पश्चिमी शोध पर अधिक टिकी है। हम परमाणु ऊर्जा युरेनियम के माध्यम से खोज रहे है। यूरेनियम पश्चिम में अधिक है। हमारे यहां थोरियम अधिक है, हमें परमाणु ऊर्जा अधिकाधिक थोरियम आधारित परमाणु भटियों में खोजनी चाहिए।
विज्ञान की शिक्षा और शोध का स्तर भारत में गिर रहा है, युवा विज्ञान से विमुख हो रहे है। यदि हिमाचल का ही उदाहरण लें तो 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले मात्र 20 प्रतिशत छात्र विज्ञान विषय पढ़ते हैं जबकि 10वीं तक सभी उसे अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ते हैं। दसवीं तक हिन्दी में विज्ञान पढ़ा जाता है, 11-12वीं में अधिकांश विद्यालयों में अध्यापक अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप छात्र अंग्रेजी में निपुण न होने से विज्ञान की पढ़ाई छोड़ जाते हैं। हम अंग्रेजी के कारण मेधावी ग्रामीण छात्रों को विज्ञान से वंचित कर रहे हैं। यदि 11-12वीं में अनिवार्य रूप से हिन्दी माध्यम में विज्ञान की शिक्षा का प्रावधान हो तो लाखों ग्रामीण छात्र विज्ञान पढ़ेंगे।
विदेशी भाषा को महत्व देकर हमने अपने देश में विज्ञान को अंग्रेजी का गुलाम बना दिया। अंग्रेजी नहीं आती तो विज्ञान नहीं पढ़ा जा सकता। लाखों कारीगर, कुशल किसान अपने अनुभव महाविद्यालयों तक नहीं पहुंचा पाते क्योंिक वे अंग्रेजी नहीं जानते। सारा वैज्ञानिक शोध-कार्य अंग्रेजी में होने से भारतीय प्रतिभाओं का योगदान नहीं मिल पाता। शोध का जो व्यवहारिक या अनुप्रयुक्त रूप हैं, उसमें भी कमी आ रही है। हमारे किसान, कारीगर के लिए कौन सी तकनीक उपयुक्त है वह अंग्रेजी पढ़े शोधकर्ता नहीं समझ पाते क्योंकि वे किसान और कारीगर की भाषा और जरूरत को नही समझते केवल पश्चिम की नकल करते हैं।
भारतीय वैज्ञानिक जब अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर आगे आते है तो भारतीय वैज्ञानिक विरासत जो संस्कृत अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में ह,ै उससे पूरी तरह कट जाते हैं और उसे घटिया मानने लगते हैं । यदि भारतीय वैज्ञानिक चाहते हैं कि राष्ट्र के लिए उपयोगी खोजें करें तो उन्हंे यहां के सामान्य किसान-कारीगर से अपनापन स्थापित करना होगा। भारतीय भाषाओं में उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान को परख कर प्रामाणिक घोषित करना होगा और इसके आधार पर अपनी आगामी शोध परियोजनाएं बनानी होगी। आज के इस प्रतियोगात्मक युग में दो ही तरह के राष्ट्र रह जाएगें-एक वे जो ज्ञान का उत्पादन करते हैं दूसरे वे जो ज्ञान का उपभोग करते है। आज ज्ञान मुफ्त में नहीं मिलता, नई तकनीक, सूचना पाने के लिए रॉयल्टी सा पेटेन्ट अधिकार के रूप में कीमत चुकानी पड़ती है। इस प्रकार ज्ञान के उत्पादक राष्ट्र अमीर होते जाएंगे और उपभोक्ता राष्ट्र गरीब होते जाऐंगे। अमरीका में विश्व के 80 प्रतिशत नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक पढ़ा रहे हैं क्योंकि वह ज्ञान-उत्पादक लोगों को खरीदकर उनसे ज्ञान पैदा करवाता है और फिर मनमाने दामों पर बेचता है।
वर्तमान समय भारत के लिए चुनौती भरा है जहां दुनिया भर के शक्तिशाली राष्ट्र भारत को एक उभरती हुई शक्ति के रूप में देख रहे हैं वहीं दूसरी ओर भारत दुनिया का सबसे बड़ा युवा जनसंख्या वाला देश भी है। इस युवा पीढ़ी को राष्ट्र के निर्माण में लगाने के लिए उनके हृदयों में देश के प्रति स्वाभिमान व स्वदेश प्रेम की भावना भरने एवं अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को गहराई से समझने हेतु स्वभाषा महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। भारत का स्वाभिमान, भारत की उन्नति इस बात पर निर्भर करेगी कि हम कब ज्ञान के उत्पादक राष्ट्रों में अग्रणी बनेंगे। इसके लिए मौलिक शोध की जरूरत है जो मौलिक चिंतन से आएगी और जिसका आधार स्वभाषा में अध्धयन अध्यापन ही बन सकता हैं।
भौतिकी विज्ञान विभाग, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला